Wednesday 11 July 2012

गर्त.....

सागर में बहाव ,
पास की रेत
पर पैरों के निशान
और निशान के
नीचे से रेत हट कर
गर्तनुमा की दीवार का रूप
लिए है |
ऐसे ही हजारों छलछालाये गर्त
हैं सबों के मन में
पर गूंजते हैं कान किसके ,
इन दृर थपेड़ों पर ?
मूक व्योम में
इन साधारण चीखों को
प्राण देता कौन है ?
सब विश्व की वाह्य
झंकार में
निरंतर लीन हैं
आत्मबोध का परिचय
यहाँ कौन देता है ?
जटिल है ये माना
पर ,जटिलता
सदेव
उत्थान का मार्ग है |
और
जटिल संघर्ष का
क्या खुद सामीप्य
नहीं होता
अस्तित्वा निर्माण में ?

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 10 July 2012

मौन......

वो चरम सीमा ,जहाँ
शब्द शेष होते हैं
और मन
बीहड़ में पहुँच
अबोध ,पथिक सा
ताकता है -राह को -|
मौन छाता है ,दूर-दूर
की भ्रांतियां मौन
की साख पर आती हैं ,
स्थिर हो जाती हैं |
चिंतन की धारा,गरिष्ठ
भाव से मन को
खंगालती हैं |
उत्पन्न करती हैं
निर्विकार प्रतिबिम्ब,,और
प्रवाह करती हैं
चिर परिवर्तनशील
सागर की ओर,
जहाँ अभय कृति
का निर्माण होता है |
और भोर की नन्ही किरणों
की सी ,नाव में,तैरती हैं
धमनिओं में बहती हैं |
संघर्ष से विश्राम मन
पाता है |
शब्दों की क्लांत ध्वनि
से
मौन का प्रसार
प्रभावी होता है |

...............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Sunday 8 July 2012

प्यार क्यों ?......

प्यार क्यों ?
क्यों एक अणु को
विकसित कर ,वेदना दूँ ?
क्यों प्रतिघात के संशय में
हर पल रहूँ ?
भविष्य को आश्वस्त
करूँ क्यों ?
वर्तमान का प्रतिनिधित्वा
न कर सकूँ |
इस अबूझ पहेली में
आकारहीन-क्रीडा
क्यों रचूँ?
प्रेम "भावना" का उत्प्रेरक है ?
या
वहां तक का मार्ग जहाँ -
विश्रिन्खल होता है
मनोभाव /और
उत्पन्न होता है
बंधन/दासता?
एक दुसरे को परस्पर
काटती रेखा |
कटांक बिंदु पर/दोनों के
समान मुल्यांकन होते हैं |-
ये बंधन है |
ऐसे बंधन में टूट
जाना चाहता हूँ |
आसाध्य वेदना सह लूँगा
इसके लिए |
पर दासता ?
में पूरी कटांक
बिंदु एक पक्ष में ?
सिहरन कौंध जाती है
मस्तिष्क तक |
उस "प्रमुख धौंस युक्त "पक्ष
के छाप
देह पर ,
मन पर ,
इच्छा पर,
अनिच्छा पर ,
जो घिन पैदा करते हैं |
और बार-बार
रोकती हैं ,
उस अणु को विकसित होने से
वेदना देने से
.
.
.
फिर
प्यार क्यों ?


.............राहुल पाण्डेय "शिरीष"