Tuesday 31 January 2012

प्रिये तुमने ही मेरा साथ दिया .......

कँवल मुस्कुराएँ थे ,,
पतझड़ में
वेदना असीम सह कर ,
भवरें
गूंजे थे उसपे ,
रात ने भी
ओस का आयोजन किया |
भोर की
नन्ही किरणों ,में
खिलती कुमुदनी ने .
अपने अधरों से ,
सब को मोह लिया |
अम्बर के रेखांकित
झुरियों से
वसुधा की
खोखली दरारों तक ,
इस बियाबानी उदासी में ,
तुमने ही मेरा साथ दिया |
मैं प्यासा नहीं
देह का
मुझे लालच नहीं
अधरों का
मुझे विश्वास की
वो कड़ी दे दो
जिसने मुझे पुनः जीवित किया |
बारिश की
कटाछ बूंदों से
गलता मेरा आत्मविश्वास
पिघलता मन ,
यौवन ,जीवन ,
को तुम्हारे स्पर्श ने जागृत किया |
अस्तित्व मेरा
मैला शीशा था ,
बरसो से बंद पिटारे में
इसे दर्पण
तुमने बनाया ,
मेरे उजड़े जड़ों को
तुमने फिर से
रोप दिया ......

प्रिये तुमने ही मेरा साथ दिया .......




-----------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 24 January 2012

प्रियतमा .......

उम्मीदों की सतह पर काई जम गयी है ,
आस की  परछाई भी छुप   गयी   है |
प्रिये तुम्हारा मुख-मंडल ही ,मात्र
प्रकाशित   स्त्रोत     है |
तेरे-मेरे धडकनों की गूंज ही केवल
रात की आखिरी ज्योत  है |
स्वप्न का वो स्वेत सूत ,जिसकी उधेरबुन ,
में दिन काल्मई हो जाती है |
प्रियतमा  तुम्हारे एक छुवन से ,
जीवन सुरमई  हो  जाता  है |
तेरे कपोलो की थिरकन से चन्द्रमा  जलता है,
तेरे देह की भाषा में,मेरा सारा साहित्य पलता है |

                         --------राहुल पाण्डेय "शिरीष "

उसने कहा था, मैं आउंगी ......

उसने कहा था, मैं  आउंगी ,
बन्धनों के सारे द्वार खोल कर ,
क्रन्दनों को भूल कर ,
समर्पण के सारे नातें निभाउंगी,,
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

तारों का रूप बनकर ,
बIदल में धुप बनकर ,
मैं तुझमे बेखुद हो जाउंगी ..
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

तरकश की तीर सी ,
झरने की शुद्ध  नीर सी ,
तेरे दिल तक पहुँच ही जाउंगी ..
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

जिस डगर पर ,
साँझ ढले चिड़िया ढूंढ़ती है बसेरा ,
सागर के जिस तट से होता है सबेरा ,
पंछी की आवाज ,सूरज की धुप बन ..
तुझे छु जाउंगी ...
  उसने कहा था,, मैं आउंगी ...|

आकेलेपन की आवाज बनकर ,
तेरे जीवन का इकबाल बनकर ,
हर मोड़ पर अपना एहसास-ए-जमाल कराउंगी ...
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

वो आती है ओझल हो जाती है ,
सांसो को सांसो से छेद जाती है ,
आज भी इतात है वो मेरे  लिए

क्योंकि .......
उसने कहा था ,,मैं आउंगी,,,,.....||


                  -------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Sunday 22 January 2012

मैं पागल हूँ शायद ......

मैं पागल हूँ शायद |
न मैं किसी को समझा पाता हूँ ,
न कोई मुझे समझ पाता है |
वो लोग कहते हैं मुझसे  ,
की खुल कर बोलो मन की बात ,
पर क्या हो समझ सकेंगे ,
वो अंतर-द्वन्द ,मन का वो भूचाल |
जिसे मैंने बचपन से जवानी तक ,आज तक ,
इस दिल में सहेज कर फिरता हूँ |
लाख करते हैं ,तानो ,हमदर्दी की बौछार ,
पर काफी न होता है ,आकाश के फट पड़ने का सौभाग्य |
उस नदी की धार  में ,सिर्फ मेरा जिस्म तैरता है,
मन तो लगता है कई यगो से नदी की सतह में ,
धस सा गया है ,फस सा गया है |
रौनको की इस तिलस्मी बाज़ार में ,
सब बाहरी आवरण देख कर परखते हैं
किसकी आँखों में वो रौशनी है,
जो भीतर झांक कर,दिल को टटोले |
पहले तो माँ थी ,जान जाती थी ,
पर आज दूर हूँ ,किस से कहूँ जान ले |
आकाश और धरती के बीच भी शायद,
इतना  फासला न हो ,जितना ,
सब ने मुझसे पैदा किया है ,
किताब की प्रथम पृष्ट भी ,
मेरी तरह  व्याकुल रहती है,की
कोई प्रेम से जान ले मेरे मनोभाव |
कब से ,आज भी ,इन्तेजार कर रहा हूँ ,
कोई तो होगा ,जो निरदैता की बर्बर पोषक ,
फेक मेरे दिल को अपने आत्मा से छु ले |
पर शायद ,आये या न ,या गलती मेरी ही रही हो हमेशा ,....
पर कोई समझा तो जाये ...की गलती किसकी .........


                                 -------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 21 January 2012

मैं भी कुछ कह रहा था ....

चाँद अपनी चांदनी से खेल रहा था ,
मैं  हाल-ये-दिल उनसे कह रहा  था ,
पता नहीं ,अब बेवफा कौन था,
पर,कहर तो दोनों ओर ढेह रहा था |

आज लगता है, जो किया बेकार किया ,
कसमे ,नातों का व्यापार किया ,
दिल क्यों कह रहा था वो मेरी है ?
उसके दिल में तो कोई और रह रहा था |

बस वो दिन है ,और आज का दिन ,
दिल सिकुड़ सा गया है ,
फूल तो हम बहुत लाये ,पर मेहका नहीं
सारी कायनात आँखों के सामने ढेह रहा था |

उसे बोल देना चाहिए था मुझे ,
शायद हो सके तो मैं  मान लेता ,
पर खुदा जाने क्या बात थी ,
वो अपने में ही सह रहा था |

आज मिले तो पूछ लूँगा शायद ,
आखिर कमी क्या थी ,प्यार में ,
चुप रहना हिम्मकत की भाषा नहीं ,
सुन लेता ,मैं भी तो कुछ कह रहा था |


                           ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

मेरे ,उनके, सब के स्वर ......

तारे अलग चमक रहे हैं ,चाँद अलग चमक रहा हैं ,
एक घर में ,हम इधर सिसक रहे हैं ,वो उधर सिसक रहे हैं |

इस  मुल्क की क्या बात करे ,बहुत उबड़खाबड़ है ,
एक ही दुकान से,हम कुछ और ,वो कुछ और चख रहे हैं |

संसद हो ,मयखाना हो ,मेले की वो चरखी हो ,
पैसे की ताकत से आज बड़े बड़े बहक रहे हैं |

उनकी बात सही है,उनकी इज्जत बहुत बड़ी है,
घर में उनके भी औरत है ,वैश्य से  चहक रहे हैं

पूरी शाम हिमाकत में गुजर जाती है उनकी ,
बस आज नहीं गए तो कितना भड़क रहे हैं |

काम उनके पास भी कुछ खास नहीं रहता ,
बस इधर की बात उधर फेक रहे हैं |

बहुत दिन हो गया ,गया नहीं उनके घर ,
आज गया तो देखा,तस्वीर में ,जवानी देख रहे हैं

परवाह न करते किसी की ,मेरी तो कोई बात नहीं ,
मेरे आंसू निकल रहे हैं,वो घुटने  सेक रहे हैं |

आज शुकून देता हूँ आखिर मै ही ,और कोई नहीं ,
बड़ी उम्मीद से आज मुझको देख रहे हैं |

                     
                                           ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 19 January 2012

मेरा चाँद ......उसकी चांदनी ....

मैं अनजान नक्षत्र सा आकाश में चाँद को ढूंढ़ रहा हूँ ,
तेरे चेहरे के सिलवटों  पर मुस्कान को ढूंढ़ रहा हूँ |

जिसके एक कथन पर अम्बर सा साज किया था ,
आज   वो   प्रबल  आवाज  ढूंढ़   रहा  हूँ |

मेरे "चाँद" पर रकाबत करता था वो चाँद ,
आज मैं अपनी चांदनी पर नाज ढूंढ़ रहा हूँ |

बाजी हर चूका हूँ ,कुछ तो चुकाना होगा,
फरेब-ए-बाका से खानों में प्यादे ढूंढ़ रहा हूँ |

उसके शहर के हर लोग पहचानते हैं मुझे,
आज उसकी आँखों में अपनी पहचान ढूंढ़ रहा हूँ |

गुन्छे की खुसबू से मदहोश कर देते थे ,
आज,सारा मय खत्म  हो गया ,मदहोशी ढूंढ़ रहा हूँ |

बहुत सहेजा था,तुम्हारे पद-चिन्ह ,सागर किनारे ,
मिटाने वाली,उस एक लहर को ढूंढ़ रहा हूँ  |

तमस में बैठा हूँ,सारी दुनिया  से हार कर ,
फिर से जितने के लिए ,बस तुम्हे ढूंढ़ रहा हूँ |

                           -----राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Wednesday 18 January 2012

पीछे देखना छोड़ दिया है ,.....

आज    मैंने    पीछे    देखना   छोड़  दिया    है ,
दिन में दिए जलना ,उसे खुस करना ,छोड़ दिया है |

उसकी यादों से आज टूटता नहीं मैं ,क्योंकि
उसे आज याद करना ही छोड़ दिया है |

जहाँ बोलने की हिदायत थी,महफ़िल में जाने से शिकायत थी ,
आज "सरताज "बुलाते हैं मुझे ,मैंने महफ़िल में जाना छोड़ दिया है |

आकाश और वो एक जैसे थे ,छु न सका आजतक ,
आज बरसाते हैं दोनों आंसू ,मैंने भीगना छोड़ दिया है |

आज फिर खफा है मुझसे,की मैं समझता नहीं उसे,
जब से रोना सिखा है ,मैंने ,मनाना छोड़ दिया है |

                      ---------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

नया जीवन चुना है........

सम्मोहन से निकल कर ,यथार्थ का जामा बुना है ,
पाषाण की रूढ़ीवाद छोड़ ,नया जीवन चुना है |

बिलाकती खामोशियों को मुंडेर से धकेला है |
रूह को आवाज दी है,अब उसे सुनना है |

बेचैनियों के दम पर ,हमने तोड़ी थी जो कसमें ,
बहरूपिया बन कर ,बेचैनियों को आज ठगना है |

रिश्तों की कश्म -काश में उलझा है क्या पथिक
रिश्तें हैं चीर अम्बर ,एहमियत इनकी ,कई गुना है |

बरबादियों को भूल कर निकले थे उस डगर पर ,
अवशेषों से अपने घर को आज फिर सजाना है |

                               ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

मुझे इंसान बनना है .....

'वज्ह' पर तेरी ,सुबह -शाम मरना है,
आज आफ़ताब को तेरी, रुख पर ढलना है |

इन्तेजार है ,आओगे .पता है ,यकीं नहीं ,
गुलशन से अलग हो कर ,आज मुझे वनवास बनना है |

चिंता है,फ़िक्र है,गम की काली स्याही है,
विगत -स्मृति भूल कर ,आज मुझे आसान बनना है|

खामोशियों को चीर कर,विरानियों को छोड़ कर,
आज     मुझे      तेरा    आजिज   बनना है |

आज आकाश ,धरती ,नखत ब्रह्माण्ड  बनना है,
थोड़ी मानवता लेकर ,आज मुझे इंसान बनना है||

                        -------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 17 January 2012

सिमटती जिंदगानी

                    आज कमरे में सिमटती है जिंदगानी ,
                    रूह भी डरती है ,कहने में अपनी कहानी I

                    आत्मा हर राह पर तोड़ी-मरोड़ी जाती है ,
                  आज तो स्वछंद सागर भी  भूल गया है ,अपनी रवानी |

                     जीवन राख है ,बाकि सब अवशेष है ,
                        धमनियों में भय है ,चरागों में पानी |

                        कभी बोलोगे तुम कुछ,सुनूंगा मैं भी ,
                      इसी इन्तेजार में हमने ,बिता दी जवानी |

                       मेहँदी भी लगती है ,अब ,लहू के धब्बे ,
                       दफना दी है ,मिटटी में ,हमने दिल की निशानी ......


                                                   -------राहुल पाण्डेय "शिरीष "



Sunday 15 January 2012

तुम्हें ढूंढ रही है .....

                     नीरवता के नीरज वसंत मे ,
                                 कंकाल स्याह की डगर ,तुम्हें
                                              ढूंढ रही है ।
                     
                      आलिंगन की मधुर रात मे,
                                  दिव्य उर्मियाँ ,शिखर पर ,तुम्हें
                                               ढूंढ रही है ।

                     सुर्ख होठों की कंपन मे ,
                                  जैसे चन्दन पिसता गंगा जल मे ,
                                  वो गंगा तट तुम्हें ढूंढ रहा  है ।

                     उल्लासों की अमर बेलि ,अश्रु के संवेद धार मे,
                                  बाट जोहती मधुयामिनी व्योम ,तुम्हें
                                              ढूंढ रही है ।

                     हृदय की घनघोर ,प्रगतिमय "धडक"मे ,
                                  घोर सांसरिक ,यौवन  की खिलती मुरझाई कालिया ,तुम्हें
                                             ढूंढ रही है ।


                                             ----- राहुल  पाण्डेय"शिरीष"
  

Friday 13 January 2012

कुछ कलियाँ शिरीष की.....

                                   चेहरे पर युही झुरीय नहीं पड़ी ,
                                   कुछ     हमने    भी  सहा  है ,
                                   रात को चुपके से छोड़  चले जाते हो ,
                                   कभी   मैंने   कुछ  कहा है ।

                                   अब गूंगे हो,कुछ ना कहोगे ,
                                    पर   मैंने   सुना   है ,
                                   अपने मुरादों  से झगड़ते हो,
                                   इन दीवारों ने मुझसे कहा है।

                                   तुम उसकी तालिम देते हो ,
                                   मैंने    माना    है ,
                                  पर कोसते हो तुम उसको ,
                                   उसने   कहा      है ।

                                 बार-बार मेरे दिल ने तुम्हें आवाज दी  ,
                                 सब     ने   सुना   है ,
                                 हर बार तुमने स्मवत खो दी ,
                                दुनिया   ने  कहा   है।

                                "तुमने" कहने  मे देर कर दी ,
                                 तुमने   कहा     है ,
                                 मैं तो  कहता ही रहा हु ,
                                तुमने   सुना  कहा  है ।

                              इशारे  भी कुछ कहते हैं ,
                               मैंने   देखा   है ,
                            इशारे मे तुमने क्या-क्या कर दिया,
                              मैंने     सुना   है ......



                                                ----राहुल पाण्डेय "शिरीष"

अब कोई नहीं रहता....

                                         अब  कोई  नहीं  रहता....
         
                               उस मकान मे ,
                                            अब कोई नहीं रहता ।
                              खिड़कियाँ टूट गयी है,
                                            फाँको ,से धूप जाती है।   
                                                      बारिश जाती है,
                                               पर नजरे नहीं जाती ,
                             क्योंकि वहाँ ,
                                           अब कोई नहीं रहता ।

                             वह  एक छत से दूसरी तक ;
                                           ताकती -मिलती  आंखे ,
                                           प्रेम के भाव से खिलती आंखे ,
                                              पथरा  सी गयी हैं ,
                           क्योंकि वहाँ ,
                                          अब कोई नहीं रहता ।

                           उस मकान मे ,
                                               एक रौशांदान  था,आज भी है ,
                                               जिसपे गौरैया का बसेरा था ,
                                               उसके बच्चों की चहचाहट थी ,
                                              आज भी है ,पर सुनता कोई नहीं ,
                           क्योंकि वहाँ ,
                                          अब कोई नहीं रहता ।
                         
                        रह गए हैं ,बस बूढ़े  खम्भे ,
                                         छत को समभाले हुए ,
                          छत भी बेमन सा पसरा हुआ है
                          आज ढूँढता है,वो आवाज ,जिसपे चिढ़ता था ,
                                         पर लाचार है ,
                           क्योंकि वहाँ ,
                                         अब कोई नहीं रहता ।

                            फिकरे भी गूँजती थी,उस मकान मे          
                                पर ,हंसी फेक बाहर करती थी ,
                                     अपने एक क्षत्र  राज पर ,
                                    खूब ठाट करती थी ,
                            पर  आज हंसी भी  फिक्र की
                                     हमदम है ।
                           क्योंकि वहाँ ,
                                         अब कोई नहीं रहता ।

                          पर दिल का क्या ,
                                        आज भी धड़कता है ,
                                        आँखें आज भी उधर देखती हैं ,
                                        पलक झपकते नहीं अब ,
                               बियाबान सी उदासी छाई है ।   
                           क्योंकि वहाँ ,
                                         अब कोई नहीं रहता । । । ।


                                                            ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
                        

Thursday 12 January 2012

                                                     और   भी   कुछ   है .......

                            वो भी है ,मैं भी हूँ ,और भी कुछ है ,
                                        जो दिखता नहीं प्यार मे,
                                       प्यार मे वही तो सब कुछ है ।

                         रातें भी हैं ,बातें भी हैं ,और मुलकते भी कुछ हैं ,
                                       जिसपे सारी दुनिया को त्याग आए ,
                                     ऐसी सौगते भी कुछ है ।

                      नजरे भी हैं ,नज़ारे भी हैं ,आसमान मे सितारे भी कुछ हैं,
                                      बेहतर हैं ;हम हैं ;अपने शहर मे ,
                                      दूसरे शहर मे पहरेदार भी कुछ हैं।

                    आंसू  भी है ,खुशियाँ भी हैं ,दिल मे खवाइशे भी कुछ हैं ,
                                    लोगो के होठो से मेरे जुमले निकले ,
                                    ऐसी  प्रबल आजमाइशे  भी ,कुछ हैं ।

                           राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 10 January 2012


          पीछे मुड़ कर देखता हूँ



          पीछे मुड़ कर देखता हूँ ,

                तो पाता हूँ ,

            मैले, बदरंग कपड़े की गठरी ,

                 में ;

             रिश्तों की आस्तियां

               बीच की खाई में ,

              पत्तों से ढकी पड़ी है।

          ये वही खाई है जिसे

             हमने अपने प्यार की अनुभूतिओं,

         से भरने का निचय

             किया था । 

               और

          और इसके ऊपर मानक पुलिया

          बनाकर

          एक दूसरे के अधरों ;

          के समीप पहुँच कर

        उन्मादों का नया संसार गठित

           किया था।

        आज नीचे तक जाता हूँ ,

            उस खाई मे  

        पर देख  नहीं पता हूँ ।

    कसमों  और वादों का वो

       विभात्श रूप । विकृत रूप ।

     जिसका तुमने कारोबार बनाया था ।  

               वो

     भूर –भूरी मिट्टी की तरह ,

    बिखरे  पड़े हैं ।

      जिसके भरोशे मैंने आकाश

    का गठन किया था....

  जहां से पहाड़ शुरू होता है ,

  उसके नीचे धरती पर

        रात की रानी का वो वृक्ष । 

   जिसकी कलियों का मोहक गंध ,

  शिशिर से भीगे तुम्हारे आँचल ,

मे व्याप्त आकार मुझे स्नेह देता ,संदेश देता।

आज पुरवाई मे वो स्पर्श नहीं ,

             वो गंध नहीं ,

 जिसका मैंने आंकलन किया था.....



                  राहुल पाण्डेय शिरीष