कँवल मुस्कुराएँ थे ,,
पतझड़ में
वेदना असीम सह कर ,
भवरें
गूंजे थे उसपे ,
रात ने भी
ओस का आयोजन किया |
भोर की
नन्ही किरणों ,में
खिलती कुमुदनी ने .
अपने अधरों से ,
सब को मोह लिया |
अम्बर के रेखांकित
झुरियों से
वसुधा की
खोखली दरारों तक ,
इस बियाबानी उदासी में ,
तुमने ही मेरा साथ दिया |
मैं प्यासा नहीं
देह का
मुझे लालच नहीं
अधरों का
मुझे विश्वास की
वो कड़ी दे दो
जिसने मुझे पुनः जीवित किया |
बारिश की
कटाछ बूंदों से
गलता मेरा आत्मविश्वास
पिघलता मन ,
यौवन ,जीवन ,
को तुम्हारे स्पर्श ने जागृत किया |
अस्तित्व मेरा
मैला शीशा था ,
बरसो से बंद पिटारे में
इसे दर्पण
तुमने बनाया ,
मेरे उजड़े जड़ों को
तुमने फिर से
रोप दिया ......
प्रिये तुमने ही मेरा साथ दिया .......
-----------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Tuesday 31 January 2012
Tuesday 24 January 2012
प्रियतमा .......
उम्मीदों की सतह पर काई जम गयी है ,
आस की परछाई भी छुप गयी है |
प्रिये तुम्हारा मुख-मंडल ही ,मात्र
प्रकाशित स्त्रोत है |
तेरे-मेरे धडकनों की गूंज ही केवल
रात की आखिरी ज्योत है |
स्वप्न का वो स्वेत सूत ,जिसकी उधेरबुन ,
में दिन काल्मई हो जाती है |
प्रियतमा तुम्हारे एक छुवन से ,
जीवन सुरमई हो जाता है |
तेरे कपोलो की थिरकन से चन्द्रमा जलता है,
तेरे देह की भाषा में,मेरा सारा साहित्य पलता है |
--------राहुल पाण्डेय "शिरीष "
आस की परछाई भी छुप गयी है |
प्रिये तुम्हारा मुख-मंडल ही ,मात्र
प्रकाशित स्त्रोत है |
तेरे-मेरे धडकनों की गूंज ही केवल
रात की आखिरी ज्योत है |
स्वप्न का वो स्वेत सूत ,जिसकी उधेरबुन ,
में दिन काल्मई हो जाती है |
प्रियतमा तुम्हारे एक छुवन से ,
जीवन सुरमई हो जाता है |
तेरे कपोलो की थिरकन से चन्द्रमा जलता है,
तेरे देह की भाषा में,मेरा सारा साहित्य पलता है |
--------राहुल पाण्डेय "शिरीष "
उसने कहा था, मैं आउंगी ......
उसने कहा था, मैं आउंगी ,
बन्धनों के सारे द्वार खोल कर ,
क्रन्दनों को भूल कर ,
समर्पण के सारे नातें निभाउंगी,,
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
तारों का रूप बनकर ,
बIदल में धुप बनकर ,
मैं तुझमे बेखुद हो जाउंगी ..
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
तरकश की तीर सी ,
झरने की शुद्ध नीर सी ,
तेरे दिल तक पहुँच ही जाउंगी ..
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
जिस डगर पर ,
साँझ ढले चिड़िया ढूंढ़ती है बसेरा ,
सागर के जिस तट से होता है सबेरा ,
पंछी की आवाज ,सूरज की धुप बन ..
तुझे छु जाउंगी ...
उसने कहा था,, मैं आउंगी ...|
आकेलेपन की आवाज बनकर ,
तेरे जीवन का इकबाल बनकर ,
हर मोड़ पर अपना एहसास-ए-जमाल कराउंगी ...
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
वो आती है ओझल हो जाती है ,
सांसो को सांसो से छेद जाती है ,
आज भी इतात है वो मेरे लिए
क्योंकि .......
उसने कहा था ,,मैं आउंगी,,,,.....||
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
बन्धनों के सारे द्वार खोल कर ,
क्रन्दनों को भूल कर ,
समर्पण के सारे नातें निभाउंगी,,
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
तारों का रूप बनकर ,
बIदल में धुप बनकर ,
मैं तुझमे बेखुद हो जाउंगी ..
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
तरकश की तीर सी ,
झरने की शुद्ध नीर सी ,
तेरे दिल तक पहुँच ही जाउंगी ..
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
जिस डगर पर ,
साँझ ढले चिड़िया ढूंढ़ती है बसेरा ,
सागर के जिस तट से होता है सबेरा ,
पंछी की आवाज ,सूरज की धुप बन ..
तुझे छु जाउंगी ...
उसने कहा था,, मैं आउंगी ...|
आकेलेपन की आवाज बनकर ,
तेरे जीवन का इकबाल बनकर ,
हर मोड़ पर अपना एहसास-ए-जमाल कराउंगी ...
उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|
वो आती है ओझल हो जाती है ,
सांसो को सांसो से छेद जाती है ,
आज भी इतात है वो मेरे लिए
क्योंकि .......
उसने कहा था ,,मैं आउंगी,,,,.....||
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Sunday 22 January 2012
मैं पागल हूँ शायद ......
मैं पागल हूँ शायद |
न मैं किसी को समझा पाता हूँ ,
न कोई मुझे समझ पाता है |
वो लोग कहते हैं मुझसे ,
की खुल कर बोलो मन की बात ,
पर क्या हो समझ सकेंगे ,
वो अंतर-द्वन्द ,मन का वो भूचाल |
जिसे मैंने बचपन से जवानी तक ,आज तक ,
इस दिल में सहेज कर फिरता हूँ |
लाख करते हैं ,तानो ,हमदर्दी की बौछार ,
पर काफी न होता है ,आकाश के फट पड़ने का सौभाग्य |
उस नदी की धार में ,सिर्फ मेरा जिस्म तैरता है,
मन तो लगता है कई यगो से नदी की सतह में ,
धस सा गया है ,फस सा गया है |
रौनको की इस तिलस्मी बाज़ार में ,
सब बाहरी आवरण देख कर परखते हैं
किसकी आँखों में वो रौशनी है,
जो भीतर झांक कर,दिल को टटोले |
पहले तो माँ थी ,जान जाती थी ,
पर आज दूर हूँ ,किस से कहूँ जान ले |
आकाश और धरती के बीच भी शायद,
इतना फासला न हो ,जितना ,
सब ने मुझसे पैदा किया है ,
किताब की प्रथम पृष्ट भी ,
मेरी तरह व्याकुल रहती है,की
कोई प्रेम से जान ले मेरे मनोभाव |
कब से ,आज भी ,इन्तेजार कर रहा हूँ ,
कोई तो होगा ,जो निरदैता की बर्बर पोषक ,
फेक मेरे दिल को अपने आत्मा से छु ले |
पर शायद ,आये या न ,या गलती मेरी ही रही हो हमेशा ,....
पर कोई समझा तो जाये ...की गलती किसकी .........
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
न मैं किसी को समझा पाता हूँ ,
न कोई मुझे समझ पाता है |
वो लोग कहते हैं मुझसे ,
की खुल कर बोलो मन की बात ,
पर क्या हो समझ सकेंगे ,
वो अंतर-द्वन्द ,मन का वो भूचाल |
जिसे मैंने बचपन से जवानी तक ,आज तक ,
इस दिल में सहेज कर फिरता हूँ |
लाख करते हैं ,तानो ,हमदर्दी की बौछार ,
पर काफी न होता है ,आकाश के फट पड़ने का सौभाग्य |
उस नदी की धार में ,सिर्फ मेरा जिस्म तैरता है,
मन तो लगता है कई यगो से नदी की सतह में ,
धस सा गया है ,फस सा गया है |
रौनको की इस तिलस्मी बाज़ार में ,
सब बाहरी आवरण देख कर परखते हैं
किसकी आँखों में वो रौशनी है,
जो भीतर झांक कर,दिल को टटोले |
पहले तो माँ थी ,जान जाती थी ,
पर आज दूर हूँ ,किस से कहूँ जान ले |
आकाश और धरती के बीच भी शायद,
इतना फासला न हो ,जितना ,
सब ने मुझसे पैदा किया है ,
किताब की प्रथम पृष्ट भी ,
मेरी तरह व्याकुल रहती है,की
कोई प्रेम से जान ले मेरे मनोभाव |
कब से ,आज भी ,इन्तेजार कर रहा हूँ ,
कोई तो होगा ,जो निरदैता की बर्बर पोषक ,
फेक मेरे दिल को अपने आत्मा से छु ले |
पर शायद ,आये या न ,या गलती मेरी ही रही हो हमेशा ,....
पर कोई समझा तो जाये ...की गलती किसकी .........
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Saturday 21 January 2012
मैं भी कुछ कह रहा था ....
चाँद अपनी चांदनी से खेल रहा था ,
मैं हाल-ये-दिल उनसे कह रहा था ,
पता नहीं ,अब बेवफा कौन था,
पर,कहर तो दोनों ओर ढेह रहा था |
आज लगता है, जो किया बेकार किया ,
कसमे ,नातों का व्यापार किया ,
दिल क्यों कह रहा था वो मेरी है ?
उसके दिल में तो कोई और रह रहा था |
बस वो दिन है ,और आज का दिन ,
दिल सिकुड़ सा गया है ,
फूल तो हम बहुत लाये ,पर मेहका नहीं
सारी कायनात आँखों के सामने ढेह रहा था |
उसे बोल देना चाहिए था मुझे ,
शायद हो सके तो मैं मान लेता ,
पर खुदा जाने क्या बात थी ,
वो अपने में ही सह रहा था |
आज मिले तो पूछ लूँगा शायद ,
आखिर कमी क्या थी ,प्यार में ,
चुप रहना हिम्मकत की भाषा नहीं ,
सुन लेता ,मैं भी तो कुछ कह रहा था |
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
मैं हाल-ये-दिल उनसे कह रहा था ,
पता नहीं ,अब बेवफा कौन था,
पर,कहर तो दोनों ओर ढेह रहा था |
आज लगता है, जो किया बेकार किया ,
कसमे ,नातों का व्यापार किया ,
दिल क्यों कह रहा था वो मेरी है ?
उसके दिल में तो कोई और रह रहा था |
बस वो दिन है ,और आज का दिन ,
दिल सिकुड़ सा गया है ,
फूल तो हम बहुत लाये ,पर मेहका नहीं
सारी कायनात आँखों के सामने ढेह रहा था |
उसे बोल देना चाहिए था मुझे ,
शायद हो सके तो मैं मान लेता ,
पर खुदा जाने क्या बात थी ,
वो अपने में ही सह रहा था |
आज मिले तो पूछ लूँगा शायद ,
आखिर कमी क्या थी ,प्यार में ,
चुप रहना हिम्मकत की भाषा नहीं ,
सुन लेता ,मैं भी तो कुछ कह रहा था |
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
मेरे ,उनके, सब के स्वर ......
तारे अलग चमक रहे हैं ,चाँद अलग चमक रहा हैं ,
एक घर में ,हम इधर सिसक रहे हैं ,वो उधर सिसक रहे हैं |
इस मुल्क की क्या बात करे ,बहुत उबड़खाबड़ है ,
एक ही दुकान से,हम कुछ और ,वो कुछ और चख रहे हैं |
संसद हो ,मयखाना हो ,मेले की वो चरखी हो ,
पैसे की ताकत से आज बड़े बड़े बहक रहे हैं |
उनकी बात सही है,उनकी इज्जत बहुत बड़ी है,
घर में उनके भी औरत है ,वैश्य से चहक रहे हैं
पूरी शाम हिमाकत में गुजर जाती है उनकी ,
बस आज नहीं गए तो कितना भड़क रहे हैं |
काम उनके पास भी कुछ खास नहीं रहता ,
बस इधर की बात उधर फेक रहे हैं |
बहुत दिन हो गया ,गया नहीं उनके घर ,
आज गया तो देखा,तस्वीर में ,जवानी देख रहे हैं
परवाह न करते किसी की ,मेरी तो कोई बात नहीं ,
मेरे आंसू निकल रहे हैं,वो घुटने सेक रहे हैं |
आज शुकून देता हूँ आखिर मै ही ,और कोई नहीं ,
बड़ी उम्मीद से आज मुझको देख रहे हैं |
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
एक घर में ,हम इधर सिसक रहे हैं ,वो उधर सिसक रहे हैं |
इस मुल्क की क्या बात करे ,बहुत उबड़खाबड़ है ,
एक ही दुकान से,हम कुछ और ,वो कुछ और चख रहे हैं |
संसद हो ,मयखाना हो ,मेले की वो चरखी हो ,
पैसे की ताकत से आज बड़े बड़े बहक रहे हैं |
उनकी बात सही है,उनकी इज्जत बहुत बड़ी है,
घर में उनके भी औरत है ,वैश्य से चहक रहे हैं
पूरी शाम हिमाकत में गुजर जाती है उनकी ,
बस आज नहीं गए तो कितना भड़क रहे हैं |
काम उनके पास भी कुछ खास नहीं रहता ,
बस इधर की बात उधर फेक रहे हैं |
बहुत दिन हो गया ,गया नहीं उनके घर ,
आज गया तो देखा,तस्वीर में ,जवानी देख रहे हैं
परवाह न करते किसी की ,मेरी तो कोई बात नहीं ,
मेरे आंसू निकल रहे हैं,वो घुटने सेक रहे हैं |
आज शुकून देता हूँ आखिर मै ही ,और कोई नहीं ,
बड़ी उम्मीद से आज मुझको देख रहे हैं |
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Thursday 19 January 2012
मेरा चाँद ......उसकी चांदनी ....
मैं अनजान नक्षत्र सा आकाश में चाँद को ढूंढ़ रहा हूँ ,
तेरे चेहरे के सिलवटों पर मुस्कान को ढूंढ़ रहा हूँ |
जिसके एक कथन पर अम्बर सा साज किया था ,
आज वो प्रबल आवाज ढूंढ़ रहा हूँ |
मेरे "चाँद" पर रकाबत करता था वो चाँद ,
आज मैं अपनी चांदनी पर नाज ढूंढ़ रहा हूँ |
बाजी हर चूका हूँ ,कुछ तो चुकाना होगा,
फरेब-ए-बाका से खानों में प्यादे ढूंढ़ रहा हूँ |
उसके शहर के हर लोग पहचानते हैं मुझे,
आज उसकी आँखों में अपनी पहचान ढूंढ़ रहा हूँ |
गुन्छे की खुसबू से मदहोश कर देते थे ,
आज,सारा मय खत्म हो गया ,मदहोशी ढूंढ़ रहा हूँ |
बहुत सहेजा था,तुम्हारे पद-चिन्ह ,सागर किनारे ,
मिटाने वाली,उस एक लहर को ढूंढ़ रहा हूँ |
तमस में बैठा हूँ,सारी दुनिया से हार कर ,
फिर से जितने के लिए ,बस तुम्हे ढूंढ़ रहा हूँ |
-----राहुल पाण्डेय "शिरीष"
तेरे चेहरे के सिलवटों पर मुस्कान को ढूंढ़ रहा हूँ |
जिसके एक कथन पर अम्बर सा साज किया था ,
आज वो प्रबल आवाज ढूंढ़ रहा हूँ |
मेरे "चाँद" पर रकाबत करता था वो चाँद ,
आज मैं अपनी चांदनी पर नाज ढूंढ़ रहा हूँ |
बाजी हर चूका हूँ ,कुछ तो चुकाना होगा,
फरेब-ए-बाका से खानों में प्यादे ढूंढ़ रहा हूँ |
उसके शहर के हर लोग पहचानते हैं मुझे,
आज उसकी आँखों में अपनी पहचान ढूंढ़ रहा हूँ |
गुन्छे की खुसबू से मदहोश कर देते थे ,
आज,सारा मय खत्म हो गया ,मदहोशी ढूंढ़ रहा हूँ |
बहुत सहेजा था,तुम्हारे पद-चिन्ह ,सागर किनारे ,
मिटाने वाली,उस एक लहर को ढूंढ़ रहा हूँ |
तमस में बैठा हूँ,सारी दुनिया से हार कर ,
फिर से जितने के लिए ,बस तुम्हे ढूंढ़ रहा हूँ |
-----राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Wednesday 18 January 2012
पीछे देखना छोड़ दिया है ,.....
आज मैंने पीछे देखना छोड़ दिया है ,
दिन में दिए जलना ,उसे खुस करना ,छोड़ दिया है |
उसकी यादों से आज टूटता नहीं मैं ,क्योंकि
उसे आज याद करना ही छोड़ दिया है |
जहाँ बोलने की हिदायत थी,महफ़िल में जाने से शिकायत थी ,
आज "सरताज "बुलाते हैं मुझे ,मैंने महफ़िल में जाना छोड़ दिया है |
आकाश और वो एक जैसे थे ,छु न सका आजतक ,
आज बरसाते हैं दोनों आंसू ,मैंने भीगना छोड़ दिया है |
आज फिर खफा है मुझसे,की मैं समझता नहीं उसे,
जब से रोना सिखा है ,मैंने ,मनाना छोड़ दिया है |
---------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
दिन में दिए जलना ,उसे खुस करना ,छोड़ दिया है |
उसकी यादों से आज टूटता नहीं मैं ,क्योंकि
उसे आज याद करना ही छोड़ दिया है |
जहाँ बोलने की हिदायत थी,महफ़िल में जाने से शिकायत थी ,
आज "सरताज "बुलाते हैं मुझे ,मैंने महफ़िल में जाना छोड़ दिया है |
आकाश और वो एक जैसे थे ,छु न सका आजतक ,
आज बरसाते हैं दोनों आंसू ,मैंने भीगना छोड़ दिया है |
आज फिर खफा है मुझसे,की मैं समझता नहीं उसे,
जब से रोना सिखा है ,मैंने ,मनाना छोड़ दिया है |
---------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
नया जीवन चुना है........
सम्मोहन से निकल कर ,यथार्थ का जामा बुना है ,
पाषाण की रूढ़ीवाद छोड़ ,नया जीवन चुना है |
बिलाकती खामोशियों को मुंडेर से धकेला है |
रूह को आवाज दी है,अब उसे सुनना है |
बेचैनियों के दम पर ,हमने तोड़ी थी जो कसमें ,
बहरूपिया बन कर ,बेचैनियों को आज ठगना है |
रिश्तों की कश्म -काश में उलझा है क्या पथिक
रिश्तें हैं चीर अम्बर ,एहमियत इनकी ,कई गुना है |
बरबादियों को भूल कर निकले थे उस डगर पर ,
अवशेषों से अपने घर को आज फिर सजाना है |
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
पाषाण की रूढ़ीवाद छोड़ ,नया जीवन चुना है |
बिलाकती खामोशियों को मुंडेर से धकेला है |
रूह को आवाज दी है,अब उसे सुनना है |
बेचैनियों के दम पर ,हमने तोड़ी थी जो कसमें ,
बहरूपिया बन कर ,बेचैनियों को आज ठगना है |
रिश्तों की कश्म -काश में उलझा है क्या पथिक
रिश्तें हैं चीर अम्बर ,एहमियत इनकी ,कई गुना है |
बरबादियों को भूल कर निकले थे उस डगर पर ,
अवशेषों से अपने घर को आज फिर सजाना है |
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
मुझे इंसान बनना है .....
'वज्ह' पर तेरी ,सुबह -शाम मरना है,
आज आफ़ताब को तेरी, रुख पर ढलना है |
इन्तेजार है ,आओगे .पता है ,यकीं नहीं ,
गुलशन से अलग हो कर ,आज मुझे वनवास बनना है |
चिंता है,फ़िक्र है,गम की काली स्याही है,
विगत -स्मृति भूल कर ,आज मुझे आसान बनना है|
खामोशियों को चीर कर,विरानियों को छोड़ कर,
आज मुझे तेरा आजिज बनना है |
आज आकाश ,धरती ,नखत ब्रह्माण्ड बनना है,
थोड़ी मानवता लेकर ,आज मुझे इंसान बनना है||
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
आज आफ़ताब को तेरी, रुख पर ढलना है |
इन्तेजार है ,आओगे .पता है ,यकीं नहीं ,
गुलशन से अलग हो कर ,आज मुझे वनवास बनना है |
चिंता है,फ़िक्र है,गम की काली स्याही है,
विगत -स्मृति भूल कर ,आज मुझे आसान बनना है|
खामोशियों को चीर कर,विरानियों को छोड़ कर,
आज मुझे तेरा आजिज बनना है |
आज आकाश ,धरती ,नखत ब्रह्माण्ड बनना है,
थोड़ी मानवता लेकर ,आज मुझे इंसान बनना है||
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Tuesday 17 January 2012
सिमटती जिंदगानी
आज कमरे में सिमटती है जिंदगानी ,
रूह भी डरती है ,कहने में अपनी कहानी I
आत्मा हर राह पर तोड़ी-मरोड़ी जाती है ,
आज तो स्वछंद सागर भी भूल गया है ,अपनी रवानी |
जीवन राख है ,बाकि सब अवशेष है ,
धमनियों में भय है ,चरागों में पानी |
कभी बोलोगे तुम कुछ,सुनूंगा मैं भी ,
इसी इन्तेजार में हमने ,बिता दी जवानी |
मेहँदी भी लगती है ,अब ,लहू के धब्बे ,
दफना दी है ,मिटटी में ,हमने दिल की निशानी ......
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष "
रूह भी डरती है ,कहने में अपनी कहानी I
आत्मा हर राह पर तोड़ी-मरोड़ी जाती है ,
आज तो स्वछंद सागर भी भूल गया है ,अपनी रवानी |
जीवन राख है ,बाकि सब अवशेष है ,
धमनियों में भय है ,चरागों में पानी |
कभी बोलोगे तुम कुछ,सुनूंगा मैं भी ,
इसी इन्तेजार में हमने ,बिता दी जवानी |
मेहँदी भी लगती है ,अब ,लहू के धब्बे ,
दफना दी है ,मिटटी में ,हमने दिल की निशानी ......
-------राहुल पाण्डेय "शिरीष "
Sunday 15 January 2012
तुम्हें ढूंढ रही है .....
नीरवता के नीरज वसंत मे ,
कंकाल स्याह की डगर ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
आलिंगन की मधुर रात मे,
दिव्य उर्मियाँ ,शिखर पर ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
सुर्ख होठों की कंपन मे ,
जैसे चन्दन पिसता गंगा जल मे ,
वो गंगा तट तुम्हें ढूंढ रहा है ।
उल्लासों की अमर बेलि ,अश्रु के संवेद धार मे,
बाट जोहती मधुयामिनी व्योम ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
हृदय की घनघोर ,प्रगतिमय "धडक"मे ,
घोर सांसरिक ,यौवन की खिलती मुरझाई कालिया ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
----- राहुल पाण्डेय"शिरीष"
कंकाल स्याह की डगर ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
आलिंगन की मधुर रात मे,
दिव्य उर्मियाँ ,शिखर पर ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
सुर्ख होठों की कंपन मे ,
जैसे चन्दन पिसता गंगा जल मे ,
वो गंगा तट तुम्हें ढूंढ रहा है ।
उल्लासों की अमर बेलि ,अश्रु के संवेद धार मे,
बाट जोहती मधुयामिनी व्योम ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
हृदय की घनघोर ,प्रगतिमय "धडक"मे ,
घोर सांसरिक ,यौवन की खिलती मुरझाई कालिया ,तुम्हें
ढूंढ रही है ।
----- राहुल पाण्डेय"शिरीष"
Friday 13 January 2012
कुछ कलियाँ शिरीष की.....
चेहरे पर युही झुरीय नहीं पड़ी ,
कुछ हमने भी सहा है ,
रात को चुपके से छोड़ चले जाते हो ,
कभी मैंने कुछ कहा है ।
अब गूंगे हो,कुछ ना कहोगे ,
पर मैंने सुना है ,
अपने मुरादों से झगड़ते हो,
इन दीवारों ने मुझसे कहा है।
तुम उसकी तालिम देते हो ,
मैंने माना है ,
पर कोसते हो तुम उसको ,
उसने कहा है ।
बार-बार मेरे दिल ने तुम्हें आवाज दी ,
सब ने सुना है ,
हर बार तुमने स्मवत खो दी ,
दुनिया ने कहा है।
"तुमने" कहने मे देर कर दी ,
तुमने कहा है ,
मैं तो कहता ही रहा हु ,
तुमने सुना कहा है ।
इशारे भी कुछ कहते हैं ,
मैंने देखा है ,
इशारे मे तुमने क्या-क्या कर दिया,
मैंने सुना है ......
----राहुल पाण्डेय "शिरीष"
कुछ हमने भी सहा है ,
रात को चुपके से छोड़ चले जाते हो ,
कभी मैंने कुछ कहा है ।
अब गूंगे हो,कुछ ना कहोगे ,
पर मैंने सुना है ,
अपने मुरादों से झगड़ते हो,
इन दीवारों ने मुझसे कहा है।
तुम उसकी तालिम देते हो ,
मैंने माना है ,
पर कोसते हो तुम उसको ,
उसने कहा है ।
बार-बार मेरे दिल ने तुम्हें आवाज दी ,
सब ने सुना है ,
हर बार तुमने स्मवत खो दी ,
दुनिया ने कहा है।
"तुमने" कहने मे देर कर दी ,
तुमने कहा है ,
मैं तो कहता ही रहा हु ,
तुमने सुना कहा है ।
इशारे भी कुछ कहते हैं ,
मैंने देखा है ,
इशारे मे तुमने क्या-क्या कर दिया,
मैंने सुना है ......
----राहुल पाण्डेय "शिरीष"
अब कोई नहीं रहता....
अब कोई नहीं रहता....
उस मकान मे ,
अब कोई नहीं रहता ।
खिड़कियाँ टूट गयी है,
फाँको ,से धूप जाती है।
बारिश जाती है,
पर नजरे नहीं जाती ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
वह एक छत से दूसरी तक ;
ताकती -मिलती आंखे ,
प्रेम के भाव से खिलती आंखे ,
पथरा सी गयी हैं ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
उस मकान मे ,
एक रौशांदान था,आज भी है ,
जिसपे गौरैया का बसेरा था ,
उसके बच्चों की चहचाहट थी ,
आज भी है ,पर सुनता कोई नहीं ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
रह गए हैं ,बस बूढ़े खम्भे ,
छत को समभाले हुए ,
छत भी बेमन सा पसरा हुआ है
आज ढूँढता है,वो आवाज ,जिसपे चिढ़ता था ,
पर लाचार है ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
फिकरे भी गूँजती थी,उस मकान मे
पर ,हंसी फेक बाहर करती थी ,
अपने एक क्षत्र राज पर ,
खूब ठाट करती थी ,
पर आज हंसी भी फिक्र की
हमदम है ।
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
पर दिल का क्या ,
आज भी धड़कता है ,
आँखें आज भी उधर देखती हैं ,
पलक झपकते नहीं अब ,
बियाबान सी उदासी छाई है ।
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता । । । ।
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
उस मकान मे ,
अब कोई नहीं रहता ।
खिड़कियाँ टूट गयी है,
फाँको ,से धूप जाती है।
बारिश जाती है,
पर नजरे नहीं जाती ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
वह एक छत से दूसरी तक ;
ताकती -मिलती आंखे ,
प्रेम के भाव से खिलती आंखे ,
पथरा सी गयी हैं ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
उस मकान मे ,
एक रौशांदान था,आज भी है ,
जिसपे गौरैया का बसेरा था ,
उसके बच्चों की चहचाहट थी ,
आज भी है ,पर सुनता कोई नहीं ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
रह गए हैं ,बस बूढ़े खम्भे ,
छत को समभाले हुए ,
छत भी बेमन सा पसरा हुआ है
आज ढूँढता है,वो आवाज ,जिसपे चिढ़ता था ,
पर लाचार है ,
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
फिकरे भी गूँजती थी,उस मकान मे
पर ,हंसी फेक बाहर करती थी ,
अपने एक क्षत्र राज पर ,
खूब ठाट करती थी ,
पर आज हंसी भी फिक्र की
हमदम है ।
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता ।
पर दिल का क्या ,
आज भी धड़कता है ,
आँखें आज भी उधर देखती हैं ,
पलक झपकते नहीं अब ,
बियाबान सी उदासी छाई है ।
क्योंकि वहाँ ,
अब कोई नहीं रहता । । । ।
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Thursday 12 January 2012
और भी कुछ है .......
वो भी है ,मैं भी हूँ ,और भी कुछ है ,
रातें भी हैं ,बातें भी हैं ,और मुलकते भी कुछ हैं ,
जिसपे सारी दुनिया को त्याग आए ,
ऐसी सौगते भी कुछ है ।
नजरे भी हैं ,नज़ारे भी हैं ,आसमान मे सितारे भी कुछ हैं,
बेहतर हैं ;हम हैं ;अपने शहर मे ,
दूसरे शहर मे पहरेदार भी कुछ हैं।
आंसू भी है ,खुशियाँ भी हैं ,दिल मे खवाइशे भी कुछ हैं ,
लोगो के होठो से मेरे जुमले निकले ,
ऐसी प्रबल आजमाइशे भी ,कुछ हैं ।
राहुल पाण्डेय "शिरीष"
वो भी है ,मैं भी हूँ ,और भी कुछ है ,
जो दिखता नहीं प्यार मे,
प्यार मे वही तो सब कुछ है । रातें भी हैं ,बातें भी हैं ,और मुलकते भी कुछ हैं ,
जिसपे सारी दुनिया को त्याग आए ,
ऐसी सौगते भी कुछ है ।
नजरे भी हैं ,नज़ारे भी हैं ,आसमान मे सितारे भी कुछ हैं,
बेहतर हैं ;हम हैं ;अपने शहर मे ,
दूसरे शहर मे पहरेदार भी कुछ हैं।
आंसू भी है ,खुशियाँ भी हैं ,दिल मे खवाइशे भी कुछ हैं ,
लोगो के होठो से मेरे जुमले निकले ,
ऐसी प्रबल आजमाइशे भी ,कुछ हैं ।
राहुल पाण्डेय "शिरीष"
Tuesday 10 January 2012
पीछे मुड़ कर देखता हूँ
पीछे मुड़ कर देखता हूँ ,
तो पाता हूँ ,
मैले, बदरंग कपड़े की गठरी ,
में ;
रिश्तों की आस्तियां
बीच की खाई में ,
पत्तों से ढकी पड़ी है।
ये वही खाई है जिसे
हमने अपने प्यार की अनुभूतिओं,
से भरने का निशचय
किया था ।
और
और इसके ऊपर मानक पुलिया
बनाकर
एक दूसरे के अधरों ;
के समीप पहुँच कर
उन्मादों का नया संसार गठित
किया था।
आज नीचे तक जाता हूँ ,
उस खाई मे
पर देख नहीं पता हूँ ।
कसमों और वादों का वो
विभात्श रूप । विकृत रूप ।
जिसका तुमने कारोबार बनाया था ।
वो
भूर –भूरी मिट्टी की तरह ,
बिखरे पड़े हैं ।
जिसके भरोशे मैंने आकाश
का गठन किया था....
जहां से पहाड़ शुरू होता है ,
उसके नीचे धरती पर
रात की रानी का वो वृक्ष ।
जिसकी कलियों का मोहक गंध ,
शिशिर से भीगे तुम्हारे आँचल ,
मे व्याप्त आकार मुझे स्नेह देता ,संदेश देता।
आज पुरवाई मे वो स्पर्श नहीं ,
वो गंध नहीं ,
जिसका मैंने आंकलन किया था.....
राहुल पाण्डेय “शिरीष”
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