हशिए की शान को रगड़ कर
चमकाते हुए आदमी से मैंने पूछा
आखिर इतनी धार की क्या जरुरत है?
पहले तो वो मेरे प्रश्नवाचक चेहरे को देखता रहा
नापता रहा मेरी औताक को,
जानने की कोशिश करता रहा कि
कहीं मैं भितरीया तो नहीं हूं.
सब कुछ परख कर उसने कहा-
बाबूजी मैं बचने के लिए धार कर रहा हूं
मुझे घिन आती है भुख से,
दर्द से अब मन उबता है,
कहीं इसी के चपेट में ना आ जाऊं
इसलिए पहले से विकल्प खोज कर रख रहा हूं.
इसकी चमक को आप मेरा आइना ना समझे
आखिर किस किस को लोहे का बनाया जाए.
आंतें लोहे की बना चुका हूं, अब इन आंतों के
सहारे जिन्दा खुद को तो कांच के आइने में देख लूं.
पर इस आइने में अब कुछ साफ नहीं दिख रहा है,
लल्छहुं आभा धूसर कर चली है मेरे चेहरे को..
शायद कहीं से खून रिश रहा है.
जो एक बड़े पैमाने में मेरे शरीर से लोहा निकाल रहा है
और साथ साथ श्रम भी, जो इस समाज की पहली
और
अखिरी भेंट थी मेरे लिए.
राहुल पाण्डेय "शिरीष"
www.sirishkephool.blogspot.com