Saturday 8 December 2012

हशिए की भेंट


हशिए की शान को रगड़ कर
चमकाते हुए आदमी से मैंने पूछा
आखिर इतनी धार की क्या जरुरत है?
पहले तो वो मेरे प्रश्नवाचक चेहरे को देखता रहा
नापता रहा मेरी औताक को,
जानने की कोशिश करता रहा कि
कहीं मैं भितरीया तो नहीं हूं.
सब कुछ परख कर उसने कहा-
बाबूजी मैं बचने के लिए धार कर रहा हूं
मुझे घिन आती है भुख से,
दर्द से अब मन उबता है,
कहीं इसी के चपेट में ना आ जाऊं
इसलिए पहले से विकल्प खोज कर रख रहा हूं.
इसकी चमक को आप मेरा आइना ना समझे
आखिर किस किस को लोहे का बनाया जाए.
आंतें लोहे की बना चुका हूं, अब इन आंतों के
सहारे जिन्दा खुद को तो कांच के आइने में देख लूं.
पर इस आइने में अब कुछ साफ नहीं दिख रहा है,
लल्छहुं आभा धूसर कर चली है मेरे चेहरे को..
शायद कहीं से खून रिश रहा है.
जो एक बड़े पैमाने में मेरे शरीर से लोहा निकाल रहा है
और साथ साथ श्रम भी, जो इस समाज की पहली
और
अखिरी भेंट थी मेरे लिए.


राहुल पाण्डेय "शिरीष"
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Thursday 29 November 2012

पत्थर

मैं जब भी सोचता हूं
 अपने होने और ना होने की
अहमियत के बारे में
 तब मुझे सही मायनों में लगता है
 कि मैं इंसान हूं.
 जो न कुछ खोता है न पाता है ...
बस खोने और पाने के महिन रेशों में उलझता है.
 जो पत्थर तोड़ता है
बड़ा मजबूत इंसान है
 पत्थर की तरह
पर इंसान ही है.
 मरता है वो
 तोड़ कर पत्थर
 उन्हें सौंप जाता है,
जो पत्थर बन कर बैठें हैं


राहुल पाण्डेय "शिरीष''

Wednesday 11 July 2012

गर्त.....

सागर में बहाव ,
पास की रेत
पर पैरों के निशान
और निशान के
नीचे से रेत हट कर
गर्तनुमा की दीवार का रूप
लिए है |
ऐसे ही हजारों छलछालाये गर्त
हैं सबों के मन में
पर गूंजते हैं कान किसके ,
इन दृर थपेड़ों पर ?
मूक व्योम में
इन साधारण चीखों को
प्राण देता कौन है ?
सब विश्व की वाह्य
झंकार में
निरंतर लीन हैं
आत्मबोध का परिचय
यहाँ कौन देता है ?
जटिल है ये माना
पर ,जटिलता
सदेव
उत्थान का मार्ग है |
और
जटिल संघर्ष का
क्या खुद सामीप्य
नहीं होता
अस्तित्वा निर्माण में ?

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 10 July 2012

मौन......

वो चरम सीमा ,जहाँ
शब्द शेष होते हैं
और मन
बीहड़ में पहुँच
अबोध ,पथिक सा
ताकता है -राह को -|
मौन छाता है ,दूर-दूर
की भ्रांतियां मौन
की साख पर आती हैं ,
स्थिर हो जाती हैं |
चिंतन की धारा,गरिष्ठ
भाव से मन को
खंगालती हैं |
उत्पन्न करती हैं
निर्विकार प्रतिबिम्ब,,और
प्रवाह करती हैं
चिर परिवर्तनशील
सागर की ओर,
जहाँ अभय कृति
का निर्माण होता है |
और भोर की नन्ही किरणों
की सी ,नाव में,तैरती हैं
धमनिओं में बहती हैं |
संघर्ष से विश्राम मन
पाता है |
शब्दों की क्लांत ध्वनि
से
मौन का प्रसार
प्रभावी होता है |

...............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Sunday 8 July 2012

प्यार क्यों ?......

प्यार क्यों ?
क्यों एक अणु को
विकसित कर ,वेदना दूँ ?
क्यों प्रतिघात के संशय में
हर पल रहूँ ?
भविष्य को आश्वस्त
करूँ क्यों ?
वर्तमान का प्रतिनिधित्वा
न कर सकूँ |
इस अबूझ पहेली में
आकारहीन-क्रीडा
क्यों रचूँ?
प्रेम "भावना" का उत्प्रेरक है ?
या
वहां तक का मार्ग जहाँ -
विश्रिन्खल होता है
मनोभाव /और
उत्पन्न होता है
बंधन/दासता?
एक दुसरे को परस्पर
काटती रेखा |
कटांक बिंदु पर/दोनों के
समान मुल्यांकन होते हैं |-
ये बंधन है |
ऐसे बंधन में टूट
जाना चाहता हूँ |
आसाध्य वेदना सह लूँगा
इसके लिए |
पर दासता ?
में पूरी कटांक
बिंदु एक पक्ष में ?
सिहरन कौंध जाती है
मस्तिष्क तक |
उस "प्रमुख धौंस युक्त "पक्ष
के छाप
देह पर ,
मन पर ,
इच्छा पर,
अनिच्छा पर ,
जो घिन पैदा करते हैं |
और बार-बार
रोकती हैं ,
उस अणु को विकसित होने से
वेदना देने से
.
.
.
फिर
प्यार क्यों ?


.............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 21 June 2012

पत्थरों का संवाद ..............

पत्थरों का संवाद
कल रात सुना था |
उनमे वर्षो से उद्वेग
पनप रहे थे |
वो भाव जो
भीतर की जटिल
आणुविक संरचना को
भेदना चाहता था ,
पर हर बार
परस्त हो जाता था |
अपने आप में फिर से
सिमट जाता था |
प्रतिशोध और पतिवाद
के अंतर पर ,उद्वेग
सक्रिय था |
हर बार की
कोशिश के साथ वो
शंखनाद करता
अपने अस्तित्वा का |
भाव जो एक तीव्र गति से
संरचना के क्रियाप्रणाली
को
सिथिल करता था |
जिससे पत्थर में
दरार आ रही थी |

.....................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 9 June 2012

मैं इन्तेजार करूँगा ..

रात जब तारों को नींद आने लगे ,
चाँद भी नींद से बोझिल हो सुस्ताने लगे ,,
चुपके से ,,,
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..
तेरे आने के सारे अनुक्रम तैयार करूँगा .
जीवन के पृष्टो को क्रमानुसार सजाऊंगा ,
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..
जब हत्या न की जाये नयी सोच की
जब स्वीकार ले समाज प्रेम के ओज को
कुंठाओं में अपने प्रेम को कैसे
अपनाऊंगा ......
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..
जब बादल भी बने अखंड आकाश
दूर हो कर भी हो
निकटता का एहसास
जब सुलझ जाये
सारे उलझन
और बुझ जाये सबो की प्यास
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..

.....................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 24 May 2012

आरोप .....

वो पल जब अलग हुई
साँसो की भाषा ,
जब आलिंगन की बेहोशी से
उठ
दो भिन्न दिशाओं को ,चल
दिये थे हम ।
किसी अंजान से ब्रह्मांड में ,
एक धूधली सी परछाई मे
चल ,पड़े थे हम ।
एक अज्ञात भविष्य ,
सामने मुह फाड़े खड़ा था ,,
और भीतर
का कोमल कंपन करता
हृदय
अंतिम याद को संजोने
पीछे मुड़ना चाहता था ।
एक रेखा जो दूरी की
इकाई बनती जा रही थी ,
बढ़ती चली जा रही थी ।
कम करना ,,मिटाना मुश्किल था
इसके
दोनों छोरो पर
अवसादों की खोखली दलीले थी ,
व्यर्थ के आंसुओं से बुझती दीपे थी ।
दूरी बढ़ाती रेखा का विस्तार
"अखंडता का परिचायक था"
भावों की हत्या थी ।
.
.
दोनों तरफ घसीटे जाते
दो उन्मादी जा रहे थे ,,
जिन पर संस्कृति
के हनन का
आरोप था ......

.....राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Wednesday 23 May 2012

तृप्ति ..........

धीरे से जुल्फों के
मधुर गीत बज उठे थे ,
जब ,
चाँदनी ने मेरे स्पर्श पर
उसे छेड़ा था ।
नज़रों के खेल मे
उसके
सारे आग्रह प्रस्तुत हुए
और
बाहों ने बाहों को घेरा था ।
रक्त मे व्याप्त कितने
अश्व ,सारथी को
तलाशते
फिर रहे थे धमनियों मे
प्रवेश को आतुर थे
ऊष्मा ने जहां
षड्यंत्र रचा था ।
व्याकुलता के तीर गड़
रहे थे ,
अधरों से नीर झर रहे थे ,
पहचान साँसो की
भला कैसे होती ?????
सांस राग एक साथ
एक हो बज रहा था ।
कुछ भाव संचारित हुए
एक दूसरे मे ,
एक दूसरे के ।
हृदय ने स्वागत किया
उँगलियों की जकड़न
कसती सी बताती थी ....
अन्तर्मन हो चुका तृप्त था .....

..........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 5 May 2012

द्वंद ..........

जब रात सोती ,
थक हार तेरे आँचल मे
तेरी ज़ुल्फों से और,,
काली हो जाती ।
माटी की दीवार पर
पीठ टिकाये ,
कल के सुंदर होने की
परिकल्पना से
अंतरप्राण मे नवीन
ऊर्जा भरती ।
छिद्र युक्ता छत के नीचे
दो देह की पहचान
को चंद्रमा प्राय देखता ,,
और
उभरी सी साडी
के पाढ़ को रात भर
धरती छूती रहती ।
रात के इस नैसर्गिक
सुख के उपरांत ,,
सुबह रोज़ की तरह
आती ...... और
कंधो पर लाद देती
जीवित रहने का प्रश्न ।
स्वाधीन होने का प्रश्न।
उन मनसिकताओं से
जो मानव मूल्य को
हैं
तोड़ती ।
सूखने न देती ,,और
न ही मूल्य देती
उन बूंदियाते पसीनों के
जो व्यर्थ नष्ट होते ,,,
और
किसी की दुनिया
सजती
जाती .............

............राहुल पाण्डेय "शिरीष "

Thursday 26 April 2012

आँखों की नमी .........

मेरी आँखों की नमी
पैरहन थी
उसकी यादों की ,
आज जो बह चली
आज शब गुजरने
को हुई थी ,
डुबना चाहा था
किरणों संग उस पार
पर ,
उन रश्मियों की कड़िया
शायद कुछ कमजोर थी ,
भाप बनाती रही
जिसे
आँखों की नमी ।
जिसकी आकृति खोजता
हुआ ,रोज़ चाँद की
छवि बदलता ,,
रकाबत करता चाँद
उसकी खोज से
जो बढ़ा देती
आँखों की नमी ।
हर रात गुजरती एक
मुराद पाले ,
की आफताब संग
सुख जाएंगे आँसू ।
उम्मीदों को परम आकार
मिलेगा ,
पर
हर बार
आकार के रेखांकित
आवरण को
मिटा देती
आँखों की नमी .........

................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 14 April 2012

मैं रोता जाता ...................

झाँकती नज़रें ,
धुंध की सतह पर ,
प्रभाव डालती ,छेड़ती
उस अंतरंग की खोज मे
व्याकुल हृदय से पुकारती ,
मन,अशांत बादल सा गर्जन
करता ,
बरस न पता ,भीतर ही भीतर गूँजता
रहता ।
उस निशा जब विदा हुई यादें
अकेलापन दिखा घर बनाते ,
चाँद भी असहाय अटका रहा
फ़लक पर
देखता रहा अपनी चाँदनी संग ,
मुझे आँसू बहाते
उन जटिल संदर्भों की व्याख्या
था मैं करता ,सुनाता
उसे समझता ।
इस विकट परिस्थिति मे
साथ उसका मिल न पाया ।
जिसके संग अनुभूतिओं का संचार
किया था ,
जिससे मैंने प्यार किया था ।
जो अकड़े टूट गए ,
शफाफ़्फ से उन अर्थों
का बोध होता ।
सक्रियता -सिथिलता मे
खोती जाती ।
धुंधली सी उसकी याद मे
मैं रोता जाता
मैं रोता जाता .........

.................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 31 March 2012

नाजुक डोर ........

व्यथित मन ये तेरा मेरा
सताता ये घना अंधेरा ,,
काल-चक्र के रिसते लहू
से ,,,
कैसे कर दूँ प्रिये
श्रिंगर तेरा ?

वो अमिट शीला सी स्मृति
जिसकी छाई से बनी
अनुभूतियों की सृष्टि
इस ज्वलंत जग मे
कैसे दे दूँ प्रिये
सरोकार तेरा ?

इस नीरस जीवन सफर मे
उम्मीद टूटी हर डगर मे
अधिकार-वांछित ही रहा ,,
कैसे पा लू प्रिये
अधिकार तेरा ?

नाजुक से वो डोर टूटे
जैसे फूलों से ओस रूठे
इस जीवन के घोर द्वंद
कैसे पा लूँ प्रिये
प्यार तेरा ?

...........राहुल पाण्डेय "शिरीष "

Tuesday 27 March 2012

त्रिकोण .....

वो त्रिकोण ,
जिसकी तीन कोने हैं ,
तीनों की इकाई जानना चाहता हूँ ,
पर समझ नहीं प रहा ।
जो तीन रेखाओं से बंद है ,
तीन रेखाएँ जुड़ी हैं ,
और ......
कोण बनाने मे
तीनों रेखाओं ने एक दूसरे को काटा भी था ।
इस कोण से बाहर निकलती
रेखा को मिटा दिया गया ......
कमजोर थी ।
उसका अस्तित्व मिट गया ।
पर मिटाने के बाद
जो दाग रह गया है ,
सबूत वो भी था,,
पर ,,
शायद इसलिए मिटाने का प्रयत्न न किया
की
फिर कोई दूसरी ,,
नयी ,,
रेखा बाहर निकालने की न सोचे ।
अब देख रहा हूँ ,
छोटे-छोटे आयत बनते ....
पर ये
रेखा से नहीं बने ,
बिन्दु मिलकर रेखा के
समान लग रहे हैं ।
ये शातिर हैं ,,,
अलग होकर रहते ,
पर ,
नयी पृष्टभूमि के वक़्त एक हो जाते ।
घनत्व को मूक कराते ,
त्रिकोण को फिर से रेखांकित करते ,
मजबूती देते
कोण मे आ चुकी फांक को ,,
और फिर फस जाता घनत्व आयत मे ,,
आयत को त्रिकोण बंधे रखती ,,,
पर याद आता है ,
ये त्रिकोण
कभी समकोण भी था । ....................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Sunday 25 March 2012

बारिश ..........और बातें ,,,,,,,,,,,,,,

कल रात बारिश आई थी ,
खिडकीओं पर बूंदों ने दस्तक दी ।
उसकी बातें लेकर आई थी ,जिसे
रात भर सुनाती रही ।
उसने हवाओं पर जो लिखा था ,
नमी लिए मेरे आँगन मे कल
बरस रही थी ।
मेरे छत के कोने से टपकता
हर एक बूंद ,
उसके चेहरे सी लगती ।
जो माटी से मिलते ही
मटमैली हो जाती ।
बारिश कह रही थी ,
"वो त्रस्त है
तेरी यादों की जमीं मे
इतनी उर्वरक शक्ति है जो
हमेशा आंसुओं की नयी फसल
तैयार कर देती है ।
और वो
काटते-काटते थक जाती है ।
खिड़की से अब चाँद भी नहीं दिखता
नीम की टहनियाँ बढ़ गयी हैं ।
बाबा से कैसे कहूँ कटवा दे ...इन्हे ।
की तुमसे बात करने मे ये अवरोध बनते हैं ।
बिस्तर का माप आज पता चला है ।
जब ऊर्जा सक्रिय होने लगी है ......
......और तुम नहीं हो ! !
रात दिन कट जाते हैं ।
एक धागे से सिली हुई बेमन सी
हंसी ,,जो अटकी रहती है गालों पर
जिसके एक अंश इधर-उधर
होने से ,,,रोने और हसने का पता चल जाए ।

....
...
अचानक बारिश बंद हो गयी
मैं सोच मे था ,,वो चली गयी
पर मैं भीग रहा था ,,
मेरे सामने थे कटीले तार,,,,
,,,पत्थरों के बीच बैठे मेरे साथी ,,,,
और पीछे ,,,,
वो
जो मेरे एक शब्द को तरस रही है ,,,,,,,

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 22 March 2012

परिधि..........

जब भी देखता हूँ
खुद को एक परिधि
में पाता हूँ ।
जिसका निर्माण मैंने
खुद नहीं किया था ।
समाज के अवसाद
और
विकृत तार्किक
ख्यालों ने
मेरे चारों ओर एक घेर
बना दिया है ।
जिसे मैं परिधि
कह रहा हूँ ।
मुझे लगता है की मेरे
पूर्वजों का भी जन्म
इसी में हुआ होगा !!!
पर क्यों उन्होने इसे
मान लिया ?
इसे मिटाने का प्रयास
क्यों नहीं किया ?
क्योंकि शायद उन्हे
पसंद आता होगा की ,,
निम्न लोग(जिन्हे वो समझते थे )
उनके सामने चप्पल माथे पर
रख कर जाए .........
जिससे वो अपने उच्च कूलीन के
होने की परिभाषा दे सके !!!!!!
पर वर्तमान की स्थिति क्या है ?
मेरे साथ .... वो पूर्वज क्या जाने ?
वो छः धागे जो मेरे कंधे से
कमर तक झूलता है ,,
उसे देख ,मेरे (शायद पूर्वज )के
अपराधी होने का बोध कराते हैं ....
वो (निम्न -जिसे पूर्वज समझते थे )
इस घेरे की दीवार इतनी बुलंद ,,
और ऊंची है ।
कई बार प्रयास किया हूँ निकालने का
पर ,,,,,,
इसकी चुभनशील सतह से छील
जाता हूँ मैं ॥
टूट जाता हूँ मैं ,,,,,,
एक अप्रियता झलकती है ,
उनके चेहरे से मेरे प्रति ,,
उनकी साँसों से एक बू आती है
हीनता की ........कोई कैसे समझाये ,,
कोई कैसे भेदे ....
मैं तो अवसादों मे जन्मा ,,पला ...बढ़ा ॥
पर मैं चाहता हूँ ,,अपना सारा कुछ
लेकर जाऊँ ,,
बस इतना छोड़ जाऊँ ...
की मेरी भविष्य की पीढ़ी को
अपमानित न होना पड़े ........

....................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

अंतरक्रंदन ..........

उसकी यादों से फूटता अंतरक्रंदन ।
मेरी मनोदशा बताती है ,
की किस तरह मेरी भावनाओं
का दमन हुआ है ।
जैसे की रात के अचानक
चले जाने पर
आकाश से तारे
छिन लिए जाते हो ।
अब यह भी बोध नहीं होता की
वो मुझमे आमीज है
या ,,,,,
पृथक कर गयी है मुझे
अपने हर एक छुवन से ।
वो क्षण जब मन अचल होता है
अंधकार मे दबे भाव
कुरेदते है
स्मृतियों को ।
अज्ञात सी अनुभूति होती है ,,
उस क्षण....
पेड़ की वो शाख जिसके सामने
हम बैठते थे .....
जो नदी की धारा से
छूता रहता था ,,,,,
हम कहते की ये
प्रेम कर रहे हैं ।
पर ॥
वो धारा तो उसे
गला रही थी ।
आज जब अकेले बैठा
वहाँ तो देखा
की वह हिस्सा
नहीं है अब पेड़
के पास ,,,,
जैसे की तुम
मेरे पास नहीं
हो .........


..............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 15 March 2012

अनुत्तरित प्रश्न ....

आज भी वो प्रश्न अनुत्तरित है
जो भूत से हम ढोते आ
रहे हैं ।
प्रश्न ये है ;की
क्या
वो आज़ाद है
या फिर
उड़ रही है ,
पर
डोर आपके
हाथों में हैं ?

उसकी संयम की कथा ॥
इतिहास मे होगी (देखिएगा)
जिसको दोहराती आई है
आज तक वो .....
कितनी पीढ़िया बीत चुकी ..
कितने जमाने गुजरे ....बदलें
उसका रूप बदला ॥सौन्दर्य
----परिमार्जित हुआ ।
पर संयम-वृति
ज्यों-के-त्यों
ढोती आई है
आज तक वो ....

उसके रक्त-स्राव
से लेकर अंगा तक
पर
आलोचना की
गयी ।
विकृत मानसिकता का
चित्रित
वर्णन का सामना
करती आई है
आज तक वो ....

वो एक अदृश्य सा ज़ंजीर
पहनी है गले मे ।
जिसकी कुंजी
उसके पास नहीं है ,,
वो लाचार है .......
पर हम से ज्यादा
प्रगतिशील ।
वो नाखून से घिस काट
देगी ...जंजीरों को
एक दिन ,,
जिससे
बंधित
थी ,,है
आज तक वो ....

ये प्रश्न कब सुलझेगा ?
क्या उत्तर है तुम्हारे पास ?
धाराएँ अनुकूल कब होंगी ?
जिसकी ढेव से फिसलता
रहा है ये प्रश्न ,
और जिसकी समीक्षा/हल की
आस मे है ......
आज तक वो ....

......राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 13 March 2012

सीवन उभरी है आज ....

यादों के पर्दों की सीवन
उभरी है आज ।
अंतरपट के मंच के किरदारों
को अंशुमाला मिलेगी ।
वो तमस को भेद आएंगे ,
जो अकारणीय धूमन में
गुम हुए थे ।
नातवान समझा जिसे
लोगो ने
पृष्टभूमि कल की बदलने
निकले हैं आज ।
तौफीक थे उनके स्वर
बंदिश बना दी
गैहान ने
बुलंदियों पर
दस्तक देगी आज ,,,,,
यादों के पर्दों की सीवन
उभरी है आज ।

......राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Friday 9 March 2012

रात कुछ यों बीती.....

पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ,
की धुंध पे नंगे पांव
भटकते रहें ।
तरंगो की तानों मे
उलझती जुल्फें उसकी
रात को और
काली ,,
नशीली ,,
रोमानी कर गयी ।
चाँदनी के धागे
ओस संग मिल
रात भर झरते रहे
नैनो से।
मौन रहे हम ,,
देह की ऊष्मा ,,
सुनाती रही,
आप बीती ....
पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ....
फ़लक के आँचल मे
जड़े नक्षत्र ,
किसी बारात सा सज रहे थे ,
और ,पेड़ की झुरमुठ
से झाँकता चाँद ......
बिस्तर की सिलवट ,,
देखता ,,
शरमाता ,,
बिना टोके चला जाता ।
रोम रोम पुलकित
कंपित स्वर ,
स्पर्श भेदती अंतरमन को
साँसे भी टकराते रहे
रात कुछ यों हुई
प्रीति ....
पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ......

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Wednesday 7 March 2012

मुलाक़ात .....

पहली से पहेलियों मे
बदल गयी ,,,,
वो मुलाक़ात ....
निगाहों से दिल तक
उतर गयी वो ....
बस,होठ थे खामोश ॥
मन के किताब ,,के आवरण
से हर पृष्ट तक ,,,,
बिखर गयी ,,,
वो मुलाक़ात ....
दिवाली मे होली सा
रंग गयी ,,,,
वो मुलाक़ात ....
मधुर गंध सा चमन
मे बिखर गयी वो ।
आज तो अपना बिस्तर भी गुलों
का सेज लगता है ।
सागर मे डूबते सूर्य की मोहकता
सी थी ,,,,
वो मुलाक़ात ....
धुंधला को स्प्स्त्ता का रूप
दे गयी ....
वो मुलाक़ात ....
अवनी को तृप्त कर
गयी वो ....
आज तो विरह की
इमारत भी डगमगा गयी
रेत पर रजनी सा
पसर गयी ,,,,
वो मुलाक़ात ....

.......राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 1 March 2012

ऐसी बारिस होती ......

प्रथम प्रेम की वादि
में
कुछ ऐसी बारिस होती है |
प्रेम सिफाल* है,उन
अभिव्यक्तियो की
जिसकी दीवारें इतनी
शफ्फाफ* होती हैं
पहली दफा ......
की
नफ्स* कस्समे-अजल*
बन जाता है अपना |
उन पेचिद्गिओं
की लम्स* जजीरों*
पर भी
तारों का ढेर लगा
देते हैं |
रूह के मिलन की
मतर*
मदारे-जीस्त*
बन जाती है |
जिस्मो की रौह*
रोबरू होती
निशा के आँगन में
चाँद जलता है,,,देख के | |
तस्लीम* करता उन
घटकों का
जिसके ताकों पर
रिश्तों की
हत्या होती है |
प्रथम प्रेम की वादि
में
कुछ ऐसी बारिस होती है |

..........राहुल पाण्डेय "शिरीष"
(कुछ उर्दू शब्द के हिन्दी अर्थ )
{१*मिट्टी का बर्तन ,२*निर्मल ३*प्राणी ४*भाग्य लिखने वाला,५*स्पर्श ,६*शून्य,७*वर्षा,८*जीवन की निर्भरता ,९*खुसबू ,}

Tuesday 28 February 2012

अर्थबोध ....

अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?
किस शैली में रचा जाए?
कितने शब्दों की पंक्ति हो?
बादल सी विशाल मनोवृति ,उसे
बूंद कहना ,शायद गलती हो ,
सन्दर्भों की समीक्षा जटिल ,
आशाओं की सार्थकता
कैसे हो ?
अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?
धुंध सी छाई स्मृति
में अक्स आवरण बने ,
सामीप्य था,मन का दिल से,
भावों की ऊष्मा .मेघ बने |
युगों से संजोये यादों के
चिन्ह मिट जाए,,,,कैसे हो ?
अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?
निर्जन बस्ती के ,तिमिर प्रकाश में
अनायास चाँद का पदार्पण हुआ
अवेवास्थित मन के कमरे में
उसका सत्कार कैसे हो ?
उसने मुझसे ,मैंने उससे
जो सपने देखे
उनका सरोकार कैसे हो ?
अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Friday 24 February 2012

वो,मैं,और प्रेम ....

रात काली,सुहानी सी,
सलोनी थी ,
खेलती थी ,तेरी तरंगो से |
बितती घड़ियाँ ,
सुनती आहट,
पाती सरोकार हमारे
यौवन की |
जिस डगर को
हमने चुना था |
भटकती ज़िन्दगी ,
सहारा खोजती ,
राहों को जा मिली ,
उसी की |
विरह की वेदना ,
प्रबल थी |
किसी बीते ज़माने में
आज प्रश्नों के
सूचक उलटे पड़े
हैं ,उसी के |
गहरे थे भावों के
स्त्रोत ,आत्मा के
कोने में ,संजोये
हमने ,
सपने ,
अपने ,
उसी के अनुपात की |
टूट कर साकार हुआ ,
प्रेम कोई
किस्मत नहीं ,
ये सार है एक
कोशिश की |

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 23 February 2012

एहसास ...

वो आती ,अपना बनाकर
एहसासों के फुव्वारे
से भीगा जाती |
वो शून्य में प्रवेश कर ,
ख्वाइशों के बिखरे
पन्नो को समेटती |
अन्तर्मन के तम में ,
झांकती ,पुकारती
मुझे,मुझसे पहचान कराती |
भावों के टूटे रेशों पर
गगन-चुम्बी शिखरों
सी आशाएं सजाती |
वो आधार सा बन कर
विश्वास की टूटी पुलिया की
धूल भरी
सड़क पर अपने महावर
से रौनक लाती |
तारों से ज्योति लेकर
जुल्फों में अगरचे की
खुशबु सवारे
विरानीओं में फूलों की
सेज सजाती |
वो आती ,अपना बनाकर
एहसासों के फुव्वारे
से भीगा जाती |

......राहुल पाण्डेय "शिरीष "

समर्पण ....

खुद को तुझे समर्पित करना ,
खुद को मुझे अर्पित करना ,
युगल भावों से सपने गढ़ना ,
निशा-रवि की जुगलबंदी में .
अपनी एक अवनी धरना ,
बातों और तर्कों से ,देखो
भेदेंगे हमें लोग यहाँ के ,
तरह-तरह के तंज कसेंगे
फिकरे देंगे ,बिखरा देंगे
तृप्ति के उन मूल्यों को
संजोना ..........
खुद को तुझे समर्पित करना ,
खुद को मुझे अर्पित करना ,
हम नया एहसास देंगे
अपनी कथा को सारांश देंगे
विगत युगों की परिभाषा को
हम नयी पहचान देंगे
दर्द की काली रात को
हम नया प्रकाश देंगे
मेरे लिए सदेव
प्रेरणा का स्त्रोत बनना
खुद को तुझे समर्पित करना ,
खुद को मुझे अर्पित करना ,

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Wednesday 22 February 2012

जाने कैसी अब्र होती है कवि की !......

जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
शब्दों के पौध ,
रेंगते-रेंगते ,खड़े हो जाते हैं ,
और,
नयी कविता बन जाती है उसकी ,,
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
चाँद की रौशनी में,
तारों की खेती करता है,
लाखों लोगो की मनोवृतियों को ,
स्वंय महसूसता है |
अपनी कलम से उनकी ,
आवाज बनता है ,
जो पिसते हैं
काल-चक्रों के पत्थर में |
वो तीव्र ढाल का अवरोधक बनता है,
जहाँ से सामाजिक मूल्य
बेसहारा गिरते हैं |
वो कसौटी बनता है बदलाव की |
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
प्रेम की ज्योत से तम मिटाता है ,
किसी के दिल में झांक,
उसे अपना बना जाता है |
चाँद-सूरज एक साथ होने की
कल्पना ,,,
और ,,कोई
क्या कर पाता है ?
बारिश के बूंद से अश्क
अलग करता है |
शायद शब्दों की माला बनी
है इसके आंसुओं की |
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
वो हँसता है ,गाता है ,
अपनी नज्में सुनाता है |
हम "वाह-वाह","क्या खूब "
करते हैं |
वो तो अपने साथ घटित घटनाओं
को बताता है |
वो जीता है हमसे,हमारे एहसास
को बढाता है |
प्रेम-वियोग सारी अवस्थाओं में
हमारा साथ निभाता है ,,
क्या हमने कभी कोशिश की
है उसे जानने की ?
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !

..... राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Friday 17 February 2012

करवट बदल रहा है.......

उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |
साँस लेने में डर लगता है ,
कोई टोक न दे ,
कहता है साँसों को जरा,
धीमे लो ,
की, मेरी नींद में खलल न दे |
फर्श से सटे दीवार पर ,
मंदिर टंगी है
उसकी मूर्तियाँ न जाने
कब से रूठी बैठी हैं |
चाहता हु कोई जवाब दे |
इस दो कमरों में न जाने ,
कितनी दूरियां हैं ?
आज कोई फासलों की नयी ,
परिभाषा दे रहा है
उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |
खिड़की पर चिटिओं की
कतार देख के जलता हूँ |
बार-बार पोंछता हूँ उन्हें ,
वो फिर आ जाती हैं |
सोचता हूँ तक़दीर की लकीर
इतनी फिसलन भरी क्यों है ?
दरवाजा भी खुलता है
मेरे आने पर,ऐसी आवाज के साथ ,
की पता नहीं उसे ,
तंग किये जा रहा हूँ ,या
वो रोज़ मुझपे एहसान
किये जा रहा है |
उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |
अब होश नहीं है ,
जज्बा नहीं है ,
किसी के प्रतिबिम्ब की ,
वो छांह नहीं है
विद्रोह करू या थक-हार
हांथो पर ललाट रख दू ,
दीवारों की सीलन ,चीखती है ,
हंसती है आज ,
"थाम ले करवट बदलने वाले "
कोई उदासी की खाई में गिरता
जा रहा है |
उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |

.............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 16 February 2012

आज मौसम में फिर वही नमी लगी......

न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
कड़ी धुप में सुकून मिलता था ,
उसके महावर से गुलों को रंग मिलता था |
उसकी जुल्फों में बादल करवट बदलते ,
चाँद को शीतलता उसी से मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
भोर का आगाज करती थी वो ,
वो रात को थपक कर सुला देती ,
उससे सुरों को साज मिलता ,
उससे मुझे अनदेखी राहें मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
आईने भी चमक उठते थे उसके गुजरने से
दामिनी भी रंग बदलती थी .
उसके इशारों से बारिश को गति मिलती,
उसके स्पर्श से मुझे तरावट मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
उसकी याद ही आज रक्त को बांधे है ,
वो आमिज़ है मेरी धमनियों में ,
उससे सारे सरोकार मिलते थे ,
मेरे हर बार टूटने के बाद ,
उससे ही नयी ज़िन्दगी मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 7 February 2012

तेरा साथ ...

इक रात कुछ यों हुआ ,
चाँद ने बादलों को
ढक दिया |
खियाबान पर तेरे
साथ ,
जीवन को अर्थों
से शोभित किया |
व्याकुलता से व्याप्त
मन को ,तुमने
संज्ञाएँ प्रदान
किया |
ध्रुव तलाशते ,
निर्जन मन को
तेरे आशा रूपी
दीपों ने राह,
दिखा दिया |
सारे संकोंचो
को परास्त कर ,
उर्मिओं के संवेद
भावों से हमने
नूतन संसार ,
गठित किया |

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Monday 6 February 2012

ध्वस्त स्वर ..............

ध्वस्त संसार के अंधकारमयी,
प्रकाश में ,
भावनाएँ नहीं पनपती ,
यहाँ मुर्दें भी सर फोड़ते नज़र आते हैं |
काल-चक्र से रौन्दाते मानव के ,
बुन्दियते पसीने में ,
छार नहीं होता ,यहाँ लाल रक्त ,
स्राव में ख़ुशी नज़र आती है |
सत्य को फावड़े से खोद ,
बेचने में ,
हाथें नहीं कांपती ,
यहाँ हवास को मनोरंजन का रूप ,
देते नज़र आते हैं |
अधखिली कलि की पांखुडियों में ,
आज शबनम नहीं भरता ,
विष का स्राव कर ,
यहाँ मरुस्थल ,बनते नज़र आते हैं |
मानव आज मानवता में विश्वास नहीं करता ,
काम का भोग कर ,
यहाँ हर घर में ,
कामदेव बनते नज़र आते हैं |

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

खोजती राहें.........

धरा की द्वन्द भरी दरारों सी
वेदना की गहरी पट्टी,
दिल में हलचल पैदा करती है |
सूत के समान महीन रेसों सी
विश्वास की नाजुक डोर ,
तेरा इन्तेजार कराती है |
तेरी याद भी लगती है मिथ्या सी
बुलंदियों का चरमराया ढांचा ,
पर अवशेष कशिश जगा जाती हैं |
ज़िन्दगी साहिल पर बेचैन सी
आधारहीन तथ्य खोजती राहों
के समकक्ष छोड़ जाती है |

.............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 4 February 2012

कविता बनाता हूँ...............

रात में जब खामोशियाँ दस्तक देती हैं ,
खिड़की से दिखते चाँद में,
तेरी आकृति बनाता हूँ |

बारिश की बूंदें जब पत्तों से टपकती हैं ,
मिटटी की सोंधी महक में ,
तेरी आहट पाता हूँ |

तेरी पलकों की नरम छाह ही बाकि है ,
वरना ज़िन्दगी की कच्ची सड़क से ,
इशराक जाता हूँ |

तेरी झलक ही प्यास बढाती है ,
मैं तो बस तेरी यादों की धूमिल छवि पर ,
कविता बनाता हूँ |

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 31 January 2012

प्रिये तुमने ही मेरा साथ दिया .......

कँवल मुस्कुराएँ थे ,,
पतझड़ में
वेदना असीम सह कर ,
भवरें
गूंजे थे उसपे ,
रात ने भी
ओस का आयोजन किया |
भोर की
नन्ही किरणों ,में
खिलती कुमुदनी ने .
अपने अधरों से ,
सब को मोह लिया |
अम्बर के रेखांकित
झुरियों से
वसुधा की
खोखली दरारों तक ,
इस बियाबानी उदासी में ,
तुमने ही मेरा साथ दिया |
मैं प्यासा नहीं
देह का
मुझे लालच नहीं
अधरों का
मुझे विश्वास की
वो कड़ी दे दो
जिसने मुझे पुनः जीवित किया |
बारिश की
कटाछ बूंदों से
गलता मेरा आत्मविश्वास
पिघलता मन ,
यौवन ,जीवन ,
को तुम्हारे स्पर्श ने जागृत किया |
अस्तित्व मेरा
मैला शीशा था ,
बरसो से बंद पिटारे में
इसे दर्पण
तुमने बनाया ,
मेरे उजड़े जड़ों को
तुमने फिर से
रोप दिया ......

प्रिये तुमने ही मेरा साथ दिया .......




-----------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 24 January 2012

प्रियतमा .......

उम्मीदों की सतह पर काई जम गयी है ,
आस की  परछाई भी छुप   गयी   है |
प्रिये तुम्हारा मुख-मंडल ही ,मात्र
प्रकाशित   स्त्रोत     है |
तेरे-मेरे धडकनों की गूंज ही केवल
रात की आखिरी ज्योत  है |
स्वप्न का वो स्वेत सूत ,जिसकी उधेरबुन ,
में दिन काल्मई हो जाती है |
प्रियतमा  तुम्हारे एक छुवन से ,
जीवन सुरमई  हो  जाता  है |
तेरे कपोलो की थिरकन से चन्द्रमा  जलता है,
तेरे देह की भाषा में,मेरा सारा साहित्य पलता है |

                         --------राहुल पाण्डेय "शिरीष "

उसने कहा था, मैं आउंगी ......

उसने कहा था, मैं  आउंगी ,
बन्धनों के सारे द्वार खोल कर ,
क्रन्दनों को भूल कर ,
समर्पण के सारे नातें निभाउंगी,,
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

तारों का रूप बनकर ,
बIदल में धुप बनकर ,
मैं तुझमे बेखुद हो जाउंगी ..
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

तरकश की तीर सी ,
झरने की शुद्ध  नीर सी ,
तेरे दिल तक पहुँच ही जाउंगी ..
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

जिस डगर पर ,
साँझ ढले चिड़िया ढूंढ़ती है बसेरा ,
सागर के जिस तट से होता है सबेरा ,
पंछी की आवाज ,सूरज की धुप बन ..
तुझे छु जाउंगी ...
  उसने कहा था,, मैं आउंगी ...|

आकेलेपन की आवाज बनकर ,
तेरे जीवन का इकबाल बनकर ,
हर मोड़ पर अपना एहसास-ए-जमाल कराउंगी ...
  उसने कहा था ,,मैं आउंगी ...|

वो आती है ओझल हो जाती है ,
सांसो को सांसो से छेद जाती है ,
आज भी इतात है वो मेरे  लिए

क्योंकि .......
उसने कहा था ,,मैं आउंगी,,,,.....||


                  -------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Sunday 22 January 2012

मैं पागल हूँ शायद ......

मैं पागल हूँ शायद |
न मैं किसी को समझा पाता हूँ ,
न कोई मुझे समझ पाता है |
वो लोग कहते हैं मुझसे  ,
की खुल कर बोलो मन की बात ,
पर क्या हो समझ सकेंगे ,
वो अंतर-द्वन्द ,मन का वो भूचाल |
जिसे मैंने बचपन से जवानी तक ,आज तक ,
इस दिल में सहेज कर फिरता हूँ |
लाख करते हैं ,तानो ,हमदर्दी की बौछार ,
पर काफी न होता है ,आकाश के फट पड़ने का सौभाग्य |
उस नदी की धार  में ,सिर्फ मेरा जिस्म तैरता है,
मन तो लगता है कई यगो से नदी की सतह में ,
धस सा गया है ,फस सा गया है |
रौनको की इस तिलस्मी बाज़ार में ,
सब बाहरी आवरण देख कर परखते हैं
किसकी आँखों में वो रौशनी है,
जो भीतर झांक कर,दिल को टटोले |
पहले तो माँ थी ,जान जाती थी ,
पर आज दूर हूँ ,किस से कहूँ जान ले |
आकाश और धरती के बीच भी शायद,
इतना  फासला न हो ,जितना ,
सब ने मुझसे पैदा किया है ,
किताब की प्रथम पृष्ट भी ,
मेरी तरह  व्याकुल रहती है,की
कोई प्रेम से जान ले मेरे मनोभाव |
कब से ,आज भी ,इन्तेजार कर रहा हूँ ,
कोई तो होगा ,जो निरदैता की बर्बर पोषक ,
फेक मेरे दिल को अपने आत्मा से छु ले |
पर शायद ,आये या न ,या गलती मेरी ही रही हो हमेशा ,....
पर कोई समझा तो जाये ...की गलती किसकी .........


                                 -------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 21 January 2012

मैं भी कुछ कह रहा था ....

चाँद अपनी चांदनी से खेल रहा था ,
मैं  हाल-ये-दिल उनसे कह रहा  था ,
पता नहीं ,अब बेवफा कौन था,
पर,कहर तो दोनों ओर ढेह रहा था |

आज लगता है, जो किया बेकार किया ,
कसमे ,नातों का व्यापार किया ,
दिल क्यों कह रहा था वो मेरी है ?
उसके दिल में तो कोई और रह रहा था |

बस वो दिन है ,और आज का दिन ,
दिल सिकुड़ सा गया है ,
फूल तो हम बहुत लाये ,पर मेहका नहीं
सारी कायनात आँखों के सामने ढेह रहा था |

उसे बोल देना चाहिए था मुझे ,
शायद हो सके तो मैं  मान लेता ,
पर खुदा जाने क्या बात थी ,
वो अपने में ही सह रहा था |

आज मिले तो पूछ लूँगा शायद ,
आखिर कमी क्या थी ,प्यार में ,
चुप रहना हिम्मकत की भाषा नहीं ,
सुन लेता ,मैं भी तो कुछ कह रहा था |


                           ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

मेरे ,उनके, सब के स्वर ......

तारे अलग चमक रहे हैं ,चाँद अलग चमक रहा हैं ,
एक घर में ,हम इधर सिसक रहे हैं ,वो उधर सिसक रहे हैं |

इस  मुल्क की क्या बात करे ,बहुत उबड़खाबड़ है ,
एक ही दुकान से,हम कुछ और ,वो कुछ और चख रहे हैं |

संसद हो ,मयखाना हो ,मेले की वो चरखी हो ,
पैसे की ताकत से आज बड़े बड़े बहक रहे हैं |

उनकी बात सही है,उनकी इज्जत बहुत बड़ी है,
घर में उनके भी औरत है ,वैश्य से  चहक रहे हैं

पूरी शाम हिमाकत में गुजर जाती है उनकी ,
बस आज नहीं गए तो कितना भड़क रहे हैं |

काम उनके पास भी कुछ खास नहीं रहता ,
बस इधर की बात उधर फेक रहे हैं |

बहुत दिन हो गया ,गया नहीं उनके घर ,
आज गया तो देखा,तस्वीर में ,जवानी देख रहे हैं

परवाह न करते किसी की ,मेरी तो कोई बात नहीं ,
मेरे आंसू निकल रहे हैं,वो घुटने  सेक रहे हैं |

आज शुकून देता हूँ आखिर मै ही ,और कोई नहीं ,
बड़ी उम्मीद से आज मुझको देख रहे हैं |

                     
                                           ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 19 January 2012

मेरा चाँद ......उसकी चांदनी ....

मैं अनजान नक्षत्र सा आकाश में चाँद को ढूंढ़ रहा हूँ ,
तेरे चेहरे के सिलवटों  पर मुस्कान को ढूंढ़ रहा हूँ |

जिसके एक कथन पर अम्बर सा साज किया था ,
आज   वो   प्रबल  आवाज  ढूंढ़   रहा  हूँ |

मेरे "चाँद" पर रकाबत करता था वो चाँद ,
आज मैं अपनी चांदनी पर नाज ढूंढ़ रहा हूँ |

बाजी हर चूका हूँ ,कुछ तो चुकाना होगा,
फरेब-ए-बाका से खानों में प्यादे ढूंढ़ रहा हूँ |

उसके शहर के हर लोग पहचानते हैं मुझे,
आज उसकी आँखों में अपनी पहचान ढूंढ़ रहा हूँ |

गुन्छे की खुसबू से मदहोश कर देते थे ,
आज,सारा मय खत्म  हो गया ,मदहोशी ढूंढ़ रहा हूँ |

बहुत सहेजा था,तुम्हारे पद-चिन्ह ,सागर किनारे ,
मिटाने वाली,उस एक लहर को ढूंढ़ रहा हूँ  |

तमस में बैठा हूँ,सारी दुनिया  से हार कर ,
फिर से जितने के लिए ,बस तुम्हे ढूंढ़ रहा हूँ |

                           -----राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Wednesday 18 January 2012

पीछे देखना छोड़ दिया है ,.....

आज    मैंने    पीछे    देखना   छोड़  दिया    है ,
दिन में दिए जलना ,उसे खुस करना ,छोड़ दिया है |

उसकी यादों से आज टूटता नहीं मैं ,क्योंकि
उसे आज याद करना ही छोड़ दिया है |

जहाँ बोलने की हिदायत थी,महफ़िल में जाने से शिकायत थी ,
आज "सरताज "बुलाते हैं मुझे ,मैंने महफ़िल में जाना छोड़ दिया है |

आकाश और वो एक जैसे थे ,छु न सका आजतक ,
आज बरसाते हैं दोनों आंसू ,मैंने भीगना छोड़ दिया है |

आज फिर खफा है मुझसे,की मैं समझता नहीं उसे,
जब से रोना सिखा है ,मैंने ,मनाना छोड़ दिया है |

                      ---------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

नया जीवन चुना है........

सम्मोहन से निकल कर ,यथार्थ का जामा बुना है ,
पाषाण की रूढ़ीवाद छोड़ ,नया जीवन चुना है |

बिलाकती खामोशियों को मुंडेर से धकेला है |
रूह को आवाज दी है,अब उसे सुनना है |

बेचैनियों के दम पर ,हमने तोड़ी थी जो कसमें ,
बहरूपिया बन कर ,बेचैनियों को आज ठगना है |

रिश्तों की कश्म -काश में उलझा है क्या पथिक
रिश्तें हैं चीर अम्बर ,एहमियत इनकी ,कई गुना है |

बरबादियों को भूल कर निकले थे उस डगर पर ,
अवशेषों से अपने घर को आज फिर सजाना है |

                               ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

मुझे इंसान बनना है .....

'वज्ह' पर तेरी ,सुबह -शाम मरना है,
आज आफ़ताब को तेरी, रुख पर ढलना है |

इन्तेजार है ,आओगे .पता है ,यकीं नहीं ,
गुलशन से अलग हो कर ,आज मुझे वनवास बनना है |

चिंता है,फ़िक्र है,गम की काली स्याही है,
विगत -स्मृति भूल कर ,आज मुझे आसान बनना है|

खामोशियों को चीर कर,विरानियों को छोड़ कर,
आज     मुझे      तेरा    आजिज   बनना है |

आज आकाश ,धरती ,नखत ब्रह्माण्ड  बनना है,
थोड़ी मानवता लेकर ,आज मुझे इंसान बनना है||

                        -------राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 17 January 2012

सिमटती जिंदगानी

                    आज कमरे में सिमटती है जिंदगानी ,
                    रूह भी डरती है ,कहने में अपनी कहानी I

                    आत्मा हर राह पर तोड़ी-मरोड़ी जाती है ,
                  आज तो स्वछंद सागर भी  भूल गया है ,अपनी रवानी |

                     जीवन राख है ,बाकि सब अवशेष है ,
                        धमनियों में भय है ,चरागों में पानी |

                        कभी बोलोगे तुम कुछ,सुनूंगा मैं भी ,
                      इसी इन्तेजार में हमने ,बिता दी जवानी |

                       मेहँदी भी लगती है ,अब ,लहू के धब्बे ,
                       दफना दी है ,मिटटी में ,हमने दिल की निशानी ......


                                                   -------राहुल पाण्डेय "शिरीष "



Sunday 15 January 2012

तुम्हें ढूंढ रही है .....

                     नीरवता के नीरज वसंत मे ,
                                 कंकाल स्याह की डगर ,तुम्हें
                                              ढूंढ रही है ।
                     
                      आलिंगन की मधुर रात मे,
                                  दिव्य उर्मियाँ ,शिखर पर ,तुम्हें
                                               ढूंढ रही है ।

                     सुर्ख होठों की कंपन मे ,
                                  जैसे चन्दन पिसता गंगा जल मे ,
                                  वो गंगा तट तुम्हें ढूंढ रहा  है ।

                     उल्लासों की अमर बेलि ,अश्रु के संवेद धार मे,
                                  बाट जोहती मधुयामिनी व्योम ,तुम्हें
                                              ढूंढ रही है ।

                     हृदय की घनघोर ,प्रगतिमय "धडक"मे ,
                                  घोर सांसरिक ,यौवन  की खिलती मुरझाई कालिया ,तुम्हें
                                             ढूंढ रही है ।


                                             ----- राहुल  पाण्डेय"शिरीष"
  

Friday 13 January 2012

कुछ कलियाँ शिरीष की.....

                                   चेहरे पर युही झुरीय नहीं पड़ी ,
                                   कुछ     हमने    भी  सहा  है ,
                                   रात को चुपके से छोड़  चले जाते हो ,
                                   कभी   मैंने   कुछ  कहा है ।

                                   अब गूंगे हो,कुछ ना कहोगे ,
                                    पर   मैंने   सुना   है ,
                                   अपने मुरादों  से झगड़ते हो,
                                   इन दीवारों ने मुझसे कहा है।

                                   तुम उसकी तालिम देते हो ,
                                   मैंने    माना    है ,
                                  पर कोसते हो तुम उसको ,
                                   उसने   कहा      है ।

                                 बार-बार मेरे दिल ने तुम्हें आवाज दी  ,
                                 सब     ने   सुना   है ,
                                 हर बार तुमने स्मवत खो दी ,
                                दुनिया   ने  कहा   है।

                                "तुमने" कहने  मे देर कर दी ,
                                 तुमने   कहा     है ,
                                 मैं तो  कहता ही रहा हु ,
                                तुमने   सुना  कहा  है ।

                              इशारे  भी कुछ कहते हैं ,
                               मैंने   देखा   है ,
                            इशारे मे तुमने क्या-क्या कर दिया,
                              मैंने     सुना   है ......



                                                ----राहुल पाण्डेय "शिरीष"

अब कोई नहीं रहता....

                                         अब  कोई  नहीं  रहता....
         
                               उस मकान मे ,
                                            अब कोई नहीं रहता ।
                              खिड़कियाँ टूट गयी है,
                                            फाँको ,से धूप जाती है।   
                                                      बारिश जाती है,
                                               पर नजरे नहीं जाती ,
                             क्योंकि वहाँ ,
                                           अब कोई नहीं रहता ।

                             वह  एक छत से दूसरी तक ;
                                           ताकती -मिलती  आंखे ,
                                           प्रेम के भाव से खिलती आंखे ,
                                              पथरा  सी गयी हैं ,
                           क्योंकि वहाँ ,
                                          अब कोई नहीं रहता ।

                           उस मकान मे ,
                                               एक रौशांदान  था,आज भी है ,
                                               जिसपे गौरैया का बसेरा था ,
                                               उसके बच्चों की चहचाहट थी ,
                                              आज भी है ,पर सुनता कोई नहीं ,
                           क्योंकि वहाँ ,
                                          अब कोई नहीं रहता ।
                         
                        रह गए हैं ,बस बूढ़े  खम्भे ,
                                         छत को समभाले हुए ,
                          छत भी बेमन सा पसरा हुआ है
                          आज ढूँढता है,वो आवाज ,जिसपे चिढ़ता था ,
                                         पर लाचार है ,
                           क्योंकि वहाँ ,
                                         अब कोई नहीं रहता ।

                            फिकरे भी गूँजती थी,उस मकान मे          
                                पर ,हंसी फेक बाहर करती थी ,
                                     अपने एक क्षत्र  राज पर ,
                                    खूब ठाट करती थी ,
                            पर  आज हंसी भी  फिक्र की
                                     हमदम है ।
                           क्योंकि वहाँ ,
                                         अब कोई नहीं रहता ।

                          पर दिल का क्या ,
                                        आज भी धड़कता है ,
                                        आँखें आज भी उधर देखती हैं ,
                                        पलक झपकते नहीं अब ,
                               बियाबान सी उदासी छाई है ।   
                           क्योंकि वहाँ ,
                                         अब कोई नहीं रहता । । । ।


                                                            ------राहुल पाण्डेय "शिरीष"
                        

Thursday 12 January 2012

                                                     और   भी   कुछ   है .......

                            वो भी है ,मैं भी हूँ ,और भी कुछ है ,
                                        जो दिखता नहीं प्यार मे,
                                       प्यार मे वही तो सब कुछ है ।

                         रातें भी हैं ,बातें भी हैं ,और मुलकते भी कुछ हैं ,
                                       जिसपे सारी दुनिया को त्याग आए ,
                                     ऐसी सौगते भी कुछ है ।

                      नजरे भी हैं ,नज़ारे भी हैं ,आसमान मे सितारे भी कुछ हैं,
                                      बेहतर हैं ;हम हैं ;अपने शहर मे ,
                                      दूसरे शहर मे पहरेदार भी कुछ हैं।

                    आंसू  भी है ,खुशियाँ भी हैं ,दिल मे खवाइशे भी कुछ हैं ,
                                    लोगो के होठो से मेरे जुमले निकले ,
                                    ऐसी  प्रबल आजमाइशे  भी ,कुछ हैं ।

                           राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 10 January 2012


          पीछे मुड़ कर देखता हूँ



          पीछे मुड़ कर देखता हूँ ,

                तो पाता हूँ ,

            मैले, बदरंग कपड़े की गठरी ,

                 में ;

             रिश्तों की आस्तियां

               बीच की खाई में ,

              पत्तों से ढकी पड़ी है।

          ये वही खाई है जिसे

             हमने अपने प्यार की अनुभूतिओं,

         से भरने का निचय

             किया था । 

               और

          और इसके ऊपर मानक पुलिया

          बनाकर

          एक दूसरे के अधरों ;

          के समीप पहुँच कर

        उन्मादों का नया संसार गठित

           किया था।

        आज नीचे तक जाता हूँ ,

            उस खाई मे  

        पर देख  नहीं पता हूँ ।

    कसमों  और वादों का वो

       विभात्श रूप । विकृत रूप ।

     जिसका तुमने कारोबार बनाया था ।  

               वो

     भूर –भूरी मिट्टी की तरह ,

    बिखरे  पड़े हैं ।

      जिसके भरोशे मैंने आकाश

    का गठन किया था....

  जहां से पहाड़ शुरू होता है ,

  उसके नीचे धरती पर

        रात की रानी का वो वृक्ष । 

   जिसकी कलियों का मोहक गंध ,

  शिशिर से भीगे तुम्हारे आँचल ,

मे व्याप्त आकार मुझे स्नेह देता ,संदेश देता।

आज पुरवाई मे वो स्पर्श नहीं ,

             वो गंध नहीं ,

 जिसका मैंने आंकलन किया था.....



                  राहुल पाण्डेय शिरीष