Tuesday 23 July 2013

मत-“दाता”


कुछ बसे-बसाए
दिवालियापन घर की दीवारों पर दिखते हैं
एक लम्बी सुराख, जो उम्र का हवाला देती है.
पलंग पर लेटो तो सीधे आंखों के सामने
कौंधती रहती है.
औरतें भोरे-भोरे उठी हैं, बच्चे चूल्हे की
ताव से अपनी भूख मिटा रहे हैं,
दांत कट-कटा रहे हैं.
अपनी रात भर की चहल-कदमी-गरमी
छोड़कर बड़कू उठे हैं, रात में देशी कुछ ज्यादा
ही चढ़ गई थी, गिर पड़े थे.
आंगन में अव्यवस्था अपना काम व्यवस्थित ढंग से चला
रही है, बाहर दुवार पर चुनाव के पर्चे साटे जा रहे हैं.
इन सारी गतिविधियों के बीच घर का सबसे छोटा लड़का
मुंडेर से लड़कियां ताक रहा है, अपने जवान हो जाने का आभास
करा रहा है.
अनगिनत चुनाव चिन्हों के बीच, अपने मत की हत्या
और दाताओं
की गुलामी ही घर में राशन ला सकती है
और यह यहां के सबसे प्रधान नियमों में शमील है
और
उस छोटे लड़के को लड़की उठाने
का प्रोत्साहन भी इसी से मिल सकता है.
उस वक्त जब सारी दुनिया सो रही होती है
वो घर जागता है, आदमखोर सी आंखें
चारो ओर फैली रहती है, सूखे होठ, गला जकड़ा हुआ
सा लगता है, इतने घनघोर प्रचारों
और अंधकारमयी विकास के बाद भी सीढ़ियां ठेहुन फोड़ जाती हैं.
बड़ा दुख होता है जब हम बाहर चेहरा सिकोड़कर
अपना मत दाताओं के हाथों में सौंप आते हैं.

------राहुल पाण्डेय "शिरीष" 


तीन : एक (बटईया पर पूंजीवाद)


दूर तक धान के पौधों
के बीच
एक नितांत अकेली स्त्री
कुछ ढुंढती  कुछ निरिक्षण करती ।
अपनी साड़ी के लाल पाढ़ को
गीली माटी में लासराती
आगे बढ़ते हुई
सूर्य के लाल रंग में खो जाने को
उसकी ओर।
वो नितांत अकेली स्त्री
जो पीछे छोड़  आई थी ,
अपने दुधमुहे बच्चे को,
उसकी चीख को अनसुना कर आई थी।
पहली बार आने में दस बार सोचा था
पर
अब लगता है बच्चा समझदार हो गया होगा
चुप हो जायेगा रोते-रोते ।
बाबू से बड़ी मिन्नत कर
 इस बार रोपनी में ,
एक जगह मिली थी छोटी से खेत
जिसे बाबू ने समय ना होने की वजह से
बटईया पर दे दिया था।
जहाँ का सीधा हिसाब था
तीन : एक
और उस एक में से
बीज
घर और
आगे का रास्ता था।
पर
इस समाज की पूंजिवादिता से बहुत
 अनूठा रिशता है
जो समय-समय/ हर समय
अपने  अतिथियों का सत्कार
करता रहता है
और
यहाँ किसी के मन में इच्छा  नहीं होती कि
वो इस आतिथ्य को "न" कर दे।
सभी इसे अपना लेते हैं
और
शायद वो नितांत अकेली स्त्री
अभी से  इसका
अभ्यास करा रही है ,
अपने बच्चे को
तीन : एक के  रूप में
तीन भाग श्रम : एक भाग ममत्व
बीच में अनुपात के  चिन्ह सा खड़ा
पूंजिवादिता की भेंट
एक बटईया में मिली जमीन।

------------राहुल पाण्डेय शिरीष

पूंजीवादी चींटियां


मैं इस बाजार में बिल्कुल अकेला हूं
जहां भाषा मुझ पर हावी है,
और
इसका अन्दाजा आप मेरे मौन से लगा सकते हैं.
भले ही मुश्किल हो रात में देह और देह की रात का अंतर लगाना
पर
भाषाई-मौन को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है.
आपको शायद अन्दाजा नहीं है
रात में सिसकियां, आंसू कुछ अजीब सा शोर करते हैं
जिसे पहचानना आसान नहीं है कि इसकी उत्पत्ति
बगल में पड़े देह के मिलन से हुई है
या
अपने आप से अलग होने के दर्द से.
यह रात का वह समय है जब मुझे भूलना पसंद आता है खुद को
और
बकबकाना अच्छा लगता है कुछ भी,
उस ऊब को भुला कर
जो भाषाई मौन के बाजारवाद ने मेरे चारो तरफ फैला रखा है.
एक दिन आदतन बकबकाता हुए मुझे चींटियों की याद आई
जिन्हें मैंने बहुत दिनों से घर में नहीं देखा है,
पूंजीवाद की भक्त चींटियां वहीं जाती हैं
जहां हम जैसे काम करते हैं
या
उनके घर जिनके लिए हम काम करते हैं .
बहुत याद आती हैं वो चींटियां
जो बिछावन पर रेंगा करती थीं,
काटती थीं
और
हम सहलाते हुए उनके पुश्तों को गरियाते थे.
अब ना तो हमारे पास चीनी है
और
ना ही चींटियां हैं, अब जो भी है हमारे खून में है,
जिसके सहारे जिन्दा हूं,
पर आजकल चीटियां भी समझदार हो गई हैं,
गरीबों और भूखों के खून और लोथड़ों
पर अब वो ललचाती नहीं हैं.


--
------------राहुल पाण्डेय शिरीष



Friday 19 July 2013

वो सपना नहीं देखता है .....




अब पता नहीं चलता
कि , मेरे
चारों तरफ लोग रहते हैं 
या
मुझे आदत हो चली है
भीड़ को अनुभव करने की.
जहां मेरा जिस्म ना जाने
कितनों से रोज रगड़ता है
कितनों के पसीनें मेरे
कपड़ों में बु छोड़ जाते हैं
और यह पता नहीं चलता
कि फिर
वो मिले या ना.
रात की लम्बी खामोशी 
और नंगी टांगे किसी देश
का नक्शा बयान करती हैं
जिसे जकड़ा हुआ साफ तौर पर
देखा जा सकता है.
चेहरे की हताशा, उस पल
सबसे ज्यादा प्रभावशाली  
होती है , जब मेरी आंखों के सामने
मेरे कानों में कनगोजर घुसते जाते हैं
और
अपाहिज से बन गएं हाथों से
मैं उन्हें रोक नहीं पाता हूं.
याद आती है वो रात
जब विआह के बाद
कोहबर में उसके साथ बैठा था
और किसी ने एक सोता हुआ
बच्चा मेरे गोद में रख दिया था.
वो बच्चा बड़ा हो गया है
और, शायद उसके साथ-साथ मेरा भी
जिसे लोग मेरा अंश मानते हैं
पर वह मेरे जैसा नहीं है.
हम जिन्दगी भर अमीर होने का सपना
देखते रहें , और
उसे पता ही नहीं चला अमीरी में कि
मैं क्या हूं !!
कैसे जिना है जिन्दगी मरना कैसे है 
उसके और मेरे जिस्म में फर्क बस उम्र का है
मैं आज भी सपने देखता हूं
और उसने कभी
सपना देखने का भी सपना नहीं देखा .
वो उस भीड़ से भी अलग है
जिसे मैं आज भी अनुभव करता हूं
उनसे रोज रगड़ता हूं
और वो नंगी टांगे अब सिथिल
पड़ चुकी हैं.
उसकी भी त्वचा मर चुकी है.
अनुभवहीन सा पड़ा उसका
जिस्म कभी नहीं जगेगा.
जैसे उस देश के नक्शे में बनी गलियां
खुद से लड़ती थीं, आज भी लड़ती हैं
और उन गलियों के बच्चे मेरे बच्चों के
हमउम्र हैं.
जो लड़तें हैं
भागते हैं
जीते हैं
पर
सपना नहीं देखते हैं !


--राहुल पाण्डेय शिरीष