Tuesday 28 February 2012

अर्थबोध ....

अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?
किस शैली में रचा जाए?
कितने शब्दों की पंक्ति हो?
बादल सी विशाल मनोवृति ,उसे
बूंद कहना ,शायद गलती हो ,
सन्दर्भों की समीक्षा जटिल ,
आशाओं की सार्थकता
कैसे हो ?
अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?
धुंध सी छाई स्मृति
में अक्स आवरण बने ,
सामीप्य था,मन का दिल से,
भावों की ऊष्मा .मेघ बने |
युगों से संजोये यादों के
चिन्ह मिट जाए,,,,कैसे हो ?
अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?
निर्जन बस्ती के ,तिमिर प्रकाश में
अनायास चाँद का पदार्पण हुआ
अवेवास्थित मन के कमरे में
उसका सत्कार कैसे हो ?
उसने मुझसे ,मैंने उससे
जो सपने देखे
उनका सरोकार कैसे हो ?
अंतरमन का अर्थबोध
भला कैसे हो ?

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Friday 24 February 2012

वो,मैं,और प्रेम ....

रात काली,सुहानी सी,
सलोनी थी ,
खेलती थी ,तेरी तरंगो से |
बितती घड़ियाँ ,
सुनती आहट,
पाती सरोकार हमारे
यौवन की |
जिस डगर को
हमने चुना था |
भटकती ज़िन्दगी ,
सहारा खोजती ,
राहों को जा मिली ,
उसी की |
विरह की वेदना ,
प्रबल थी |
किसी बीते ज़माने में
आज प्रश्नों के
सूचक उलटे पड़े
हैं ,उसी के |
गहरे थे भावों के
स्त्रोत ,आत्मा के
कोने में ,संजोये
हमने ,
सपने ,
अपने ,
उसी के अनुपात की |
टूट कर साकार हुआ ,
प्रेम कोई
किस्मत नहीं ,
ये सार है एक
कोशिश की |

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 23 February 2012

एहसास ...

वो आती ,अपना बनाकर
एहसासों के फुव्वारे
से भीगा जाती |
वो शून्य में प्रवेश कर ,
ख्वाइशों के बिखरे
पन्नो को समेटती |
अन्तर्मन के तम में ,
झांकती ,पुकारती
मुझे,मुझसे पहचान कराती |
भावों के टूटे रेशों पर
गगन-चुम्बी शिखरों
सी आशाएं सजाती |
वो आधार सा बन कर
विश्वास की टूटी पुलिया की
धूल भरी
सड़क पर अपने महावर
से रौनक लाती |
तारों से ज्योति लेकर
जुल्फों में अगरचे की
खुशबु सवारे
विरानीओं में फूलों की
सेज सजाती |
वो आती ,अपना बनाकर
एहसासों के फुव्वारे
से भीगा जाती |

......राहुल पाण्डेय "शिरीष "

समर्पण ....

खुद को तुझे समर्पित करना ,
खुद को मुझे अर्पित करना ,
युगल भावों से सपने गढ़ना ,
निशा-रवि की जुगलबंदी में .
अपनी एक अवनी धरना ,
बातों और तर्कों से ,देखो
भेदेंगे हमें लोग यहाँ के ,
तरह-तरह के तंज कसेंगे
फिकरे देंगे ,बिखरा देंगे
तृप्ति के उन मूल्यों को
संजोना ..........
खुद को तुझे समर्पित करना ,
खुद को मुझे अर्पित करना ,
हम नया एहसास देंगे
अपनी कथा को सारांश देंगे
विगत युगों की परिभाषा को
हम नयी पहचान देंगे
दर्द की काली रात को
हम नया प्रकाश देंगे
मेरे लिए सदेव
प्रेरणा का स्त्रोत बनना
खुद को तुझे समर्पित करना ,
खुद को मुझे अर्पित करना ,

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Wednesday 22 February 2012

जाने कैसी अब्र होती है कवि की !......

जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
शब्दों के पौध ,
रेंगते-रेंगते ,खड़े हो जाते हैं ,
और,
नयी कविता बन जाती है उसकी ,,
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
चाँद की रौशनी में,
तारों की खेती करता है,
लाखों लोगो की मनोवृतियों को ,
स्वंय महसूसता है |
अपनी कलम से उनकी ,
आवाज बनता है ,
जो पिसते हैं
काल-चक्रों के पत्थर में |
वो तीव्र ढाल का अवरोधक बनता है,
जहाँ से सामाजिक मूल्य
बेसहारा गिरते हैं |
वो कसौटी बनता है बदलाव की |
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
प्रेम की ज्योत से तम मिटाता है ,
किसी के दिल में झांक,
उसे अपना बना जाता है |
चाँद-सूरज एक साथ होने की
कल्पना ,,,
और ,,कोई
क्या कर पाता है ?
बारिश के बूंद से अश्क
अलग करता है |
शायद शब्दों की माला बनी
है इसके आंसुओं की |
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !
वो हँसता है ,गाता है ,
अपनी नज्में सुनाता है |
हम "वाह-वाह","क्या खूब "
करते हैं |
वो तो अपने साथ घटित घटनाओं
को बताता है |
वो जीता है हमसे,हमारे एहसास
को बढाता है |
प्रेम-वियोग सारी अवस्थाओं में
हमारा साथ निभाता है ,,
क्या हमने कभी कोशिश की
है उसे जानने की ?
जाने कैसी अब्र होती है कवि की !

..... राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Friday 17 February 2012

करवट बदल रहा है.......

उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |
साँस लेने में डर लगता है ,
कोई टोक न दे ,
कहता है साँसों को जरा,
धीमे लो ,
की, मेरी नींद में खलल न दे |
फर्श से सटे दीवार पर ,
मंदिर टंगी है
उसकी मूर्तियाँ न जाने
कब से रूठी बैठी हैं |
चाहता हु कोई जवाब दे |
इस दो कमरों में न जाने ,
कितनी दूरियां हैं ?
आज कोई फासलों की नयी ,
परिभाषा दे रहा है
उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |
खिड़की पर चिटिओं की
कतार देख के जलता हूँ |
बार-बार पोंछता हूँ उन्हें ,
वो फिर आ जाती हैं |
सोचता हूँ तक़दीर की लकीर
इतनी फिसलन भरी क्यों है ?
दरवाजा भी खुलता है
मेरे आने पर,ऐसी आवाज के साथ ,
की पता नहीं उसे ,
तंग किये जा रहा हूँ ,या
वो रोज़ मुझपे एहसान
किये जा रहा है |
उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |
अब होश नहीं है ,
जज्बा नहीं है ,
किसी के प्रतिबिम्ब की ,
वो छांह नहीं है
विद्रोह करू या थक-हार
हांथो पर ललाट रख दू ,
दीवारों की सीलन ,चीखती है ,
हंसती है आज ,
"थाम ले करवट बदलने वाले "
कोई उदासी की खाई में गिरता
जा रहा है |
उस घर में एक आइना ही है ,
जो मुझे पहचानता है ,
और जो है ,लगता है ,नींद में
करवट बदल रहा है |

.............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 16 February 2012

आज मौसम में फिर वही नमी लगी......

न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
कड़ी धुप में सुकून मिलता था ,
उसके महावर से गुलों को रंग मिलता था |
उसकी जुल्फों में बादल करवट बदलते ,
चाँद को शीतलता उसी से मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
भोर का आगाज करती थी वो ,
वो रात को थपक कर सुला देती ,
उससे सुरों को साज मिलता ,
उससे मुझे अनदेखी राहें मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
आईने भी चमक उठते थे उसके गुजरने से
दामिनी भी रंग बदलती थी .
उसके इशारों से बारिश को गति मिलती,
उसके स्पर्श से मुझे तरावट मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |
उसकी याद ही आज रक्त को बांधे है ,
वो आमिज़ है मेरी धमनियों में ,
उससे सारे सरोकार मिलते थे ,
मेरे हर बार टूटने के बाद ,
उससे ही नयी ज़िन्दगी मिलती थी |
न जाने क्योँ ?
आज मौसम में फिर वही नमी लगी ,
जो उसके बाँहों में मिलती थी |

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 7 February 2012

तेरा साथ ...

इक रात कुछ यों हुआ ,
चाँद ने बादलों को
ढक दिया |
खियाबान पर तेरे
साथ ,
जीवन को अर्थों
से शोभित किया |
व्याकुलता से व्याप्त
मन को ,तुमने
संज्ञाएँ प्रदान
किया |
ध्रुव तलाशते ,
निर्जन मन को
तेरे आशा रूपी
दीपों ने राह,
दिखा दिया |
सारे संकोंचो
को परास्त कर ,
उर्मिओं के संवेद
भावों से हमने
नूतन संसार ,
गठित किया |

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Monday 6 February 2012

ध्वस्त स्वर ..............

ध्वस्त संसार के अंधकारमयी,
प्रकाश में ,
भावनाएँ नहीं पनपती ,
यहाँ मुर्दें भी सर फोड़ते नज़र आते हैं |
काल-चक्र से रौन्दाते मानव के ,
बुन्दियते पसीने में ,
छार नहीं होता ,यहाँ लाल रक्त ,
स्राव में ख़ुशी नज़र आती है |
सत्य को फावड़े से खोद ,
बेचने में ,
हाथें नहीं कांपती ,
यहाँ हवास को मनोरंजन का रूप ,
देते नज़र आते हैं |
अधखिली कलि की पांखुडियों में ,
आज शबनम नहीं भरता ,
विष का स्राव कर ,
यहाँ मरुस्थल ,बनते नज़र आते हैं |
मानव आज मानवता में विश्वास नहीं करता ,
काम का भोग कर ,
यहाँ हर घर में ,
कामदेव बनते नज़र आते हैं |

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

खोजती राहें.........

धरा की द्वन्द भरी दरारों सी
वेदना की गहरी पट्टी,
दिल में हलचल पैदा करती है |
सूत के समान महीन रेसों सी
विश्वास की नाजुक डोर ,
तेरा इन्तेजार कराती है |
तेरी याद भी लगती है मिथ्या सी
बुलंदियों का चरमराया ढांचा ,
पर अवशेष कशिश जगा जाती हैं |
ज़िन्दगी साहिल पर बेचैन सी
आधारहीन तथ्य खोजती राहों
के समकक्ष छोड़ जाती है |

.............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Saturday 4 February 2012

कविता बनाता हूँ...............

रात में जब खामोशियाँ दस्तक देती हैं ,
खिड़की से दिखते चाँद में,
तेरी आकृति बनाता हूँ |

बारिश की बूंदें जब पत्तों से टपकती हैं ,
मिटटी की सोंधी महक में ,
तेरी आहट पाता हूँ |

तेरी पलकों की नरम छाह ही बाकि है ,
वरना ज़िन्दगी की कच्ची सड़क से ,
इशराक जाता हूँ |

तेरी झलक ही प्यास बढाती है ,
मैं तो बस तेरी यादों की धूमिल छवि पर ,
कविता बनाता हूँ |

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"