Saturday 31 March 2012

नाजुक डोर ........

व्यथित मन ये तेरा मेरा
सताता ये घना अंधेरा ,,
काल-चक्र के रिसते लहू
से ,,,
कैसे कर दूँ प्रिये
श्रिंगर तेरा ?

वो अमिट शीला सी स्मृति
जिसकी छाई से बनी
अनुभूतियों की सृष्टि
इस ज्वलंत जग मे
कैसे दे दूँ प्रिये
सरोकार तेरा ?

इस नीरस जीवन सफर मे
उम्मीद टूटी हर डगर मे
अधिकार-वांछित ही रहा ,,
कैसे पा लू प्रिये
अधिकार तेरा ?

नाजुक से वो डोर टूटे
जैसे फूलों से ओस रूठे
इस जीवन के घोर द्वंद
कैसे पा लूँ प्रिये
प्यार तेरा ?

...........राहुल पाण्डेय "शिरीष "

Tuesday 27 March 2012

त्रिकोण .....

वो त्रिकोण ,
जिसकी तीन कोने हैं ,
तीनों की इकाई जानना चाहता हूँ ,
पर समझ नहीं प रहा ।
जो तीन रेखाओं से बंद है ,
तीन रेखाएँ जुड़ी हैं ,
और ......
कोण बनाने मे
तीनों रेखाओं ने एक दूसरे को काटा भी था ।
इस कोण से बाहर निकलती
रेखा को मिटा दिया गया ......
कमजोर थी ।
उसका अस्तित्व मिट गया ।
पर मिटाने के बाद
जो दाग रह गया है ,
सबूत वो भी था,,
पर ,,
शायद इसलिए मिटाने का प्रयत्न न किया
की
फिर कोई दूसरी ,,
नयी ,,
रेखा बाहर निकालने की न सोचे ।
अब देख रहा हूँ ,
छोटे-छोटे आयत बनते ....
पर ये
रेखा से नहीं बने ,
बिन्दु मिलकर रेखा के
समान लग रहे हैं ।
ये शातिर हैं ,,,
अलग होकर रहते ,
पर ,
नयी पृष्टभूमि के वक़्त एक हो जाते ।
घनत्व को मूक कराते ,
त्रिकोण को फिर से रेखांकित करते ,
मजबूती देते
कोण मे आ चुकी फांक को ,,
और फिर फस जाता घनत्व आयत मे ,,
आयत को त्रिकोण बंधे रखती ,,,
पर याद आता है ,
ये त्रिकोण
कभी समकोण भी था । ....................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Sunday 25 March 2012

बारिश ..........और बातें ,,,,,,,,,,,,,,

कल रात बारिश आई थी ,
खिडकीओं पर बूंदों ने दस्तक दी ।
उसकी बातें लेकर आई थी ,जिसे
रात भर सुनाती रही ।
उसने हवाओं पर जो लिखा था ,
नमी लिए मेरे आँगन मे कल
बरस रही थी ।
मेरे छत के कोने से टपकता
हर एक बूंद ,
उसके चेहरे सी लगती ।
जो माटी से मिलते ही
मटमैली हो जाती ।
बारिश कह रही थी ,
"वो त्रस्त है
तेरी यादों की जमीं मे
इतनी उर्वरक शक्ति है जो
हमेशा आंसुओं की नयी फसल
तैयार कर देती है ।
और वो
काटते-काटते थक जाती है ।
खिड़की से अब चाँद भी नहीं दिखता
नीम की टहनियाँ बढ़ गयी हैं ।
बाबा से कैसे कहूँ कटवा दे ...इन्हे ।
की तुमसे बात करने मे ये अवरोध बनते हैं ।
बिस्तर का माप आज पता चला है ।
जब ऊर्जा सक्रिय होने लगी है ......
......और तुम नहीं हो ! !
रात दिन कट जाते हैं ।
एक धागे से सिली हुई बेमन सी
हंसी ,,जो अटकी रहती है गालों पर
जिसके एक अंश इधर-उधर
होने से ,,,रोने और हसने का पता चल जाए ।

....
...
अचानक बारिश बंद हो गयी
मैं सोच मे था ,,वो चली गयी
पर मैं भीग रहा था ,,
मेरे सामने थे कटीले तार,,,,
,,,पत्थरों के बीच बैठे मेरे साथी ,,,,
और पीछे ,,,,
वो
जो मेरे एक शब्द को तरस रही है ,,,,,,,

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 22 March 2012

परिधि..........

जब भी देखता हूँ
खुद को एक परिधि
में पाता हूँ ।
जिसका निर्माण मैंने
खुद नहीं किया था ।
समाज के अवसाद
और
विकृत तार्किक
ख्यालों ने
मेरे चारों ओर एक घेर
बना दिया है ।
जिसे मैं परिधि
कह रहा हूँ ।
मुझे लगता है की मेरे
पूर्वजों का भी जन्म
इसी में हुआ होगा !!!
पर क्यों उन्होने इसे
मान लिया ?
इसे मिटाने का प्रयास
क्यों नहीं किया ?
क्योंकि शायद उन्हे
पसंद आता होगा की ,,
निम्न लोग(जिन्हे वो समझते थे )
उनके सामने चप्पल माथे पर
रख कर जाए .........
जिससे वो अपने उच्च कूलीन के
होने की परिभाषा दे सके !!!!!!
पर वर्तमान की स्थिति क्या है ?
मेरे साथ .... वो पूर्वज क्या जाने ?
वो छः धागे जो मेरे कंधे से
कमर तक झूलता है ,,
उसे देख ,मेरे (शायद पूर्वज )के
अपराधी होने का बोध कराते हैं ....
वो (निम्न -जिसे पूर्वज समझते थे )
इस घेरे की दीवार इतनी बुलंद ,,
और ऊंची है ।
कई बार प्रयास किया हूँ निकालने का
पर ,,,,,,
इसकी चुभनशील सतह से छील
जाता हूँ मैं ॥
टूट जाता हूँ मैं ,,,,,,
एक अप्रियता झलकती है ,
उनके चेहरे से मेरे प्रति ,,
उनकी साँसों से एक बू आती है
हीनता की ........कोई कैसे समझाये ,,
कोई कैसे भेदे ....
मैं तो अवसादों मे जन्मा ,,पला ...बढ़ा ॥
पर मैं चाहता हूँ ,,अपना सारा कुछ
लेकर जाऊँ ,,
बस इतना छोड़ जाऊँ ...
की मेरी भविष्य की पीढ़ी को
अपमानित न होना पड़े ........

....................राहुल पाण्डेय "शिरीष"

अंतरक्रंदन ..........

उसकी यादों से फूटता अंतरक्रंदन ।
मेरी मनोदशा बताती है ,
की किस तरह मेरी भावनाओं
का दमन हुआ है ।
जैसे की रात के अचानक
चले जाने पर
आकाश से तारे
छिन लिए जाते हो ।
अब यह भी बोध नहीं होता की
वो मुझमे आमीज है
या ,,,,,
पृथक कर गयी है मुझे
अपने हर एक छुवन से ।
वो क्षण जब मन अचल होता है
अंधकार मे दबे भाव
कुरेदते है
स्मृतियों को ।
अज्ञात सी अनुभूति होती है ,,
उस क्षण....
पेड़ की वो शाख जिसके सामने
हम बैठते थे .....
जो नदी की धारा से
छूता रहता था ,,,,,
हम कहते की ये
प्रेम कर रहे हैं ।
पर ॥
वो धारा तो उसे
गला रही थी ।
आज जब अकेले बैठा
वहाँ तो देखा
की वह हिस्सा
नहीं है अब पेड़
के पास ,,,,
जैसे की तुम
मेरे पास नहीं
हो .........


..............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 15 March 2012

अनुत्तरित प्रश्न ....

आज भी वो प्रश्न अनुत्तरित है
जो भूत से हम ढोते आ
रहे हैं ।
प्रश्न ये है ;की
क्या
वो आज़ाद है
या फिर
उड़ रही है ,
पर
डोर आपके
हाथों में हैं ?

उसकी संयम की कथा ॥
इतिहास मे होगी (देखिएगा)
जिसको दोहराती आई है
आज तक वो .....
कितनी पीढ़िया बीत चुकी ..
कितने जमाने गुजरे ....बदलें
उसका रूप बदला ॥सौन्दर्य
----परिमार्जित हुआ ।
पर संयम-वृति
ज्यों-के-त्यों
ढोती आई है
आज तक वो ....

उसके रक्त-स्राव
से लेकर अंगा तक
पर
आलोचना की
गयी ।
विकृत मानसिकता का
चित्रित
वर्णन का सामना
करती आई है
आज तक वो ....

वो एक अदृश्य सा ज़ंजीर
पहनी है गले मे ।
जिसकी कुंजी
उसके पास नहीं है ,,
वो लाचार है .......
पर हम से ज्यादा
प्रगतिशील ।
वो नाखून से घिस काट
देगी ...जंजीरों को
एक दिन ,,
जिससे
बंधित
थी ,,है
आज तक वो ....

ये प्रश्न कब सुलझेगा ?
क्या उत्तर है तुम्हारे पास ?
धाराएँ अनुकूल कब होंगी ?
जिसकी ढेव से फिसलता
रहा है ये प्रश्न ,
और जिसकी समीक्षा/हल की
आस मे है ......
आज तक वो ....

......राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Tuesday 13 March 2012

सीवन उभरी है आज ....

यादों के पर्दों की सीवन
उभरी है आज ।
अंतरपट के मंच के किरदारों
को अंशुमाला मिलेगी ।
वो तमस को भेद आएंगे ,
जो अकारणीय धूमन में
गुम हुए थे ।
नातवान समझा जिसे
लोगो ने
पृष्टभूमि कल की बदलने
निकले हैं आज ।
तौफीक थे उनके स्वर
बंदिश बना दी
गैहान ने
बुलंदियों पर
दस्तक देगी आज ,,,,,
यादों के पर्दों की सीवन
उभरी है आज ।

......राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Friday 9 March 2012

रात कुछ यों बीती.....

पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ,
की धुंध पे नंगे पांव
भटकते रहें ।
तरंगो की तानों मे
उलझती जुल्फें उसकी
रात को और
काली ,,
नशीली ,,
रोमानी कर गयी ।
चाँदनी के धागे
ओस संग मिल
रात भर झरते रहे
नैनो से।
मौन रहे हम ,,
देह की ऊष्मा ,,
सुनाती रही,
आप बीती ....
पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ....
फ़लक के आँचल मे
जड़े नक्षत्र ,
किसी बारात सा सज रहे थे ,
और ,पेड़ की झुरमुठ
से झाँकता चाँद ......
बिस्तर की सिलवट ,,
देखता ,,
शरमाता ,,
बिना टोके चला जाता ।
रोम रोम पुलकित
कंपित स्वर ,
स्पर्श भेदती अंतरमन को
साँसे भी टकराते रहे
रात कुछ यों हुई
प्रीति ....
पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ......

.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Wednesday 7 March 2012

मुलाक़ात .....

पहली से पहेलियों मे
बदल गयी ,,,,
वो मुलाक़ात ....
निगाहों से दिल तक
उतर गयी वो ....
बस,होठ थे खामोश ॥
मन के किताब ,,के आवरण
से हर पृष्ट तक ,,,,
बिखर गयी ,,,
वो मुलाक़ात ....
दिवाली मे होली सा
रंग गयी ,,,,
वो मुलाक़ात ....
मधुर गंध सा चमन
मे बिखर गयी वो ।
आज तो अपना बिस्तर भी गुलों
का सेज लगता है ।
सागर मे डूबते सूर्य की मोहकता
सी थी ,,,,
वो मुलाक़ात ....
धुंधला को स्प्स्त्ता का रूप
दे गयी ....
वो मुलाक़ात ....
अवनी को तृप्त कर
गयी वो ....
आज तो विरह की
इमारत भी डगमगा गयी
रेत पर रजनी सा
पसर गयी ,,,,
वो मुलाक़ात ....

.......राहुल पाण्डेय "शिरीष"

Thursday 1 March 2012

ऐसी बारिस होती ......

प्रथम प्रेम की वादि
में
कुछ ऐसी बारिस होती है |
प्रेम सिफाल* है,उन
अभिव्यक्तियो की
जिसकी दीवारें इतनी
शफ्फाफ* होती हैं
पहली दफा ......
की
नफ्स* कस्समे-अजल*
बन जाता है अपना |
उन पेचिद्गिओं
की लम्स* जजीरों*
पर भी
तारों का ढेर लगा
देते हैं |
रूह के मिलन की
मतर*
मदारे-जीस्त*
बन जाती है |
जिस्मो की रौह*
रोबरू होती
निशा के आँगन में
चाँद जलता है,,,देख के | |
तस्लीम* करता उन
घटकों का
जिसके ताकों पर
रिश्तों की
हत्या होती है |
प्रथम प्रेम की वादि
में
कुछ ऐसी बारिस होती है |

..........राहुल पाण्डेय "शिरीष"
(कुछ उर्दू शब्द के हिन्दी अर्थ )
{१*मिट्टी का बर्तन ,२*निर्मल ३*प्राणी ४*भाग्य लिखने वाला,५*स्पर्श ,६*शून्य,७*वर्षा,८*जीवन की निर्भरता ,९*खुसबू ,}