Wednesday 11 July 2012

गर्त.....

सागर में बहाव ,
पास की रेत
पर पैरों के निशान
और निशान के
नीचे से रेत हट कर
गर्तनुमा की दीवार का रूप
लिए है |
ऐसे ही हजारों छलछालाये गर्त
हैं सबों के मन में
पर गूंजते हैं कान किसके ,
इन दृर थपेड़ों पर ?
मूक व्योम में
इन साधारण चीखों को
प्राण देता कौन है ?
सब विश्व की वाह्य
झंकार में
निरंतर लीन हैं
आत्मबोध का परिचय
यहाँ कौन देता है ?
जटिल है ये माना
पर ,जटिलता
सदेव
उत्थान का मार्ग है |
और
जटिल संघर्ष का
क्या खुद सामीप्य
नहीं होता
अस्तित्वा निर्माण में ?

............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

1 comment:

  1. गर्त और सागर को क्रमशः अंतर्मन और बाह्य संसार का प्रतीक बना , अस्तित्व निर्माण हेतु अंतर्बोध को प्रेरित करती सुन्दर रचना

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