रात जब तारों को नींद आने लगे ,
चाँद भी नींद से बोझिल हो सुस्ताने लगे ,,
चुपके से ,,,
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..
तेरे आने के सारे अनुक्रम तैयार करूँगा .
जीवन के पृष्टो को क्रमानुसार सजाऊंगा ,
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..
जब हत्या न की जाये नयी सोच की
जब स्वीकार ले समाज प्रेम के ओज को
कुंठाओं में अपने प्रेम को कैसे
अपनाऊंगा ......
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..
जब बादल भी बने अखंड आकाश
दूर हो कर भी हो
निकटता का एहसास
जब सुलझ जाये
सारे उलझन
और बुझ जाये सबो की प्यास
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा ..
.....................राहुल पाण्डेय "शिरीष"
sundar bhaw...
ReplyDelete"जब हत्या न की जाये नयी सोच की
ReplyDeleteजब स्वीकार ले समाज प्रेम के ओज को"
"जब सुलझ जाये सारे उलझन
और बुझ जाये सबो की प्यास
प्रिये दस्तक देना द्वार पर
मैं इन्तेजार करूँगा .."
यह कोई सामान्य भावना नहीं ... यह वैदिक आर्ष्य भावना है , जहां कवि अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं से ऊपर उठकर एक ऋषि की भांति "सर्वे भवन्तु सुखिनः " और "सर्वं शांतिः " की अभीप्सा में अपनी व्यक्तिगत अभीप्सा को विलीन कर देता है .इतनी सात्विक भावनाओं में अपनी प्रेमाभिलाषा के अश्रु- बिन्दुवों को विलीन कर, इस अत्यंत सुन्दर रचना से प्रेम को उन्नत शिखर पर ले जाने के लिए रचनाकार हार्दिक बधाई के पात्र हैं .