Saturday 26 January 2013

मर्दों के मकड़जाल में पिस रही है स्त्री की आजादी

समाज के संशोधनों के बाद नारी की अवस्था में आये परिवर्तन सराहनीय हैं. एक विकृत मानसिक अवस्था को बदलने में कितने संघर्षों का सामना करना पड़ा है और इन संघर्षों में जिन वर्गों ने अपना योगदान दिया है, उनके मूल्यों का सम्मान करना अनिवार्य है. विगत युग की नारी और आज की नारी की अवस्था में काफी परिमार्जन हुआ है इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता. पर अगर गंभीरता से इस मुद्दे पर विचार किया जाये तो देखा जा सकता है कि वहीं समस्याएं आज भी मौजूद हैं बस उनके रूप में परिवर्तन हुआ है.

पहले की बात करें तो जहां एक तरफ घूंघट के आवरण में नारी को देखना समाज को ज्यादा पसंद रहा है, वहीं इससे बाहर निकल कर आयी नारी आज दूसरे भंवर में फंसती नज़र आ रही है. यह एक अदृश्य जाल रूपी चक्रव्यूह है जहां बाहरी अवलोकन में वो एक सुन्दर पृष्ठभूमि पर नज़र आती है पर वहां उसके अंतरमन के ऊपर हो रहे लगातार प्रहारों को नहीं देखा जा सकता है.

एक पक्ष यह है कि यह समाज हमेशा से पुरुष प्रधान रहा है और आज भी यह उसी ओर निरंतर अग्रसर है और दूसरा यह पक्ष है कि “किस रूप में नारी स्वाधीनता चाहती है?” क्या वो मानसिक रूप से स्वतंत्र होना चाहती है और आत्मनिर्भर होना चाहती है या फिर इसी सामाजिक चक्र में रह कर बदलाव की आशा में लगातार प्रयास करना चाहती है. कोई भी परिवर्तन बदलाव तो लाता है पर बहुत सारे तथ्यों के मायने भी बदल देता है. किसी भी सामाजिक क्रांति का निष्कर्ष यही निकला है. या तो वो क्रांति विफल रही है या इतने बदलाव लायी है जिसमें बांध नुमा मानक टूट गए हैं.

स्त्री ने अपनी आजादी को मर्दों के हाथ में खुद ही बंधक रख दिया

आज जहां पुरुषों की बराबरी करती नारी अपनी अलग पहचान बना रही है, वहीं वो अंतर की चोट पर बेबस नज़र आती है. उसे सब कुछ करने की आज़ादी है पर जहां प्रश्न आता है उसकी मानसिक स्वतंत्रता का तो वो डोर आज भी किसी न किसी रूप में पुरुष के हाथ में ही है. पर शायद पुरुष को यह अधिकार वो स्वयं ही प्रदान करती है. वो सारे स्तरों पर अपनी पहचान बना कर भी उन्मुक्त रूप से नहीं रहना चाहती या फिर देखा जाता है वो किसी न किसी रूप में अधीन ही रहती है. कुछ साधारण तर्कों के निष्कर्ष के आधार पर यह देखा गया है कि नारी अपने आप को निर्णय लेने में असमर्थ पाती है. वहीं दूसरी ओर एक पूरी कंपनी को चलाने में उसे आसानी होती है. आखिर ऐसा क्या कारण है जो निजी फैसले और व्यवसायी फैसले लेने में इतना बडा अंतर पैदा करता है. सिर्फ विचार और विमर्श कर क्या इन सवालों को हल किया जा सकता है या इन पर कारवाई करने की भी जरुरत है. जितनी स्वीकार्यता एक पुरुष की आजादी को है उतनी ही एक नारी को भी मिलनी चाहिए. अब शायद वो समय आ गया है जब कागज़ों पर रचित अधिकारों को प्रयोग में लाना ही चाहिए.

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