Saturday 5 May 2012

द्वंद ..........

जब रात सोती ,
थक हार तेरे आँचल मे
तेरी ज़ुल्फों से और,,
काली हो जाती ।
माटी की दीवार पर
पीठ टिकाये ,
कल के सुंदर होने की
परिकल्पना से
अंतरप्राण मे नवीन
ऊर्जा भरती ।
छिद्र युक्ता छत के नीचे
दो देह की पहचान
को चंद्रमा प्राय देखता ,,
और
उभरी सी साडी
के पाढ़ को रात भर
धरती छूती रहती ।
रात के इस नैसर्गिक
सुख के उपरांत ,,
सुबह रोज़ की तरह
आती ...... और
कंधो पर लाद देती
जीवित रहने का प्रश्न ।
स्वाधीन होने का प्रश्न।
उन मनसिकताओं से
जो मानव मूल्य को
हैं
तोड़ती ।
सूखने न देती ,,और
न ही मूल्य देती
उन बूंदियाते पसीनों के
जो व्यर्थ नष्ट होते ,,,
और
किसी की दुनिया
सजती
जाती .............

............राहुल पाण्डेय "शिरीष "

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