मैं इस बाजार में बिल्कुल अकेला हूं
जहां भाषा मुझ पर हावी है,
और
इसका अन्दाजा आप मेरे मौन से लगा सकते हैं.
भले ही मुश्किल हो रात में देह और देह की रात का
अंतर लगाना
पर
भाषाई-मौन को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है.
आपको शायद अन्दाजा नहीं है
रात में सिसकियां, आंसू कुछ अजीब सा शोर करते हैं
जिसे पहचानना आसान नहीं है कि इसकी उत्पत्ति
बगल में पड़े देह के मिलन से हुई है
या
अपने आप से अलग होने के दर्द से.
यह रात का वह समय है जब मुझे भूलना पसंद आता है
खुद को
और
बकबकाना अच्छा लगता है कुछ भी,
उस ऊब को भुला कर
जो भाषाई मौन के बाजारवाद ने मेरे चारो तरफ फैला
रखा है.
एक दिन आदतन बकबकाता हुए मुझे चींटियों की याद आई
जिन्हें मैंने बहुत दिनों से घर में नहीं देखा
है,
पूंजीवाद की भक्त चींटियां वहीं जाती हैं
जहां हम जैसे काम करते हैं
या
उनके घर जिनके लिए हम काम करते हैं .
बहुत याद आती हैं वो चींटियां
जो बिछावन पर रेंगा करती थीं,
काटती थीं
और
हम सहलाते हुए उनके पुश्तों को गरियाते थे.
अब ना तो हमारे पास चीनी है
और
ना ही चींटियां हैं, अब जो भी है हमारे खून में
है,
जिसके सहारे जिन्दा हूं,
पर आजकल चीटियां भी समझदार हो गई हैं,
गरीबों और भूखों के खून और लोथड़ों
पर अब वो ललचाती नहीं हैं.
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------------राहुल पाण्डेय “शिरीष”
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