Tuesday 23 July 2013

तीन : एक (बटईया पर पूंजीवाद)


दूर तक धान के पौधों
के बीच
एक नितांत अकेली स्त्री
कुछ ढुंढती  कुछ निरिक्षण करती ।
अपनी साड़ी के लाल पाढ़ को
गीली माटी में लासराती
आगे बढ़ते हुई
सूर्य के लाल रंग में खो जाने को
उसकी ओर।
वो नितांत अकेली स्त्री
जो पीछे छोड़  आई थी ,
अपने दुधमुहे बच्चे को,
उसकी चीख को अनसुना कर आई थी।
पहली बार आने में दस बार सोचा था
पर
अब लगता है बच्चा समझदार हो गया होगा
चुप हो जायेगा रोते-रोते ।
बाबू से बड़ी मिन्नत कर
 इस बार रोपनी में ,
एक जगह मिली थी छोटी से खेत
जिसे बाबू ने समय ना होने की वजह से
बटईया पर दे दिया था।
जहाँ का सीधा हिसाब था
तीन : एक
और उस एक में से
बीज
घर और
आगे का रास्ता था।
पर
इस समाज की पूंजिवादिता से बहुत
 अनूठा रिशता है
जो समय-समय/ हर समय
अपने  अतिथियों का सत्कार
करता रहता है
और
यहाँ किसी के मन में इच्छा  नहीं होती कि
वो इस आतिथ्य को "न" कर दे।
सभी इसे अपना लेते हैं
और
शायद वो नितांत अकेली स्त्री
अभी से  इसका
अभ्यास करा रही है ,
अपने बच्चे को
तीन : एक के  रूप में
तीन भाग श्रम : एक भाग ममत्व
बीच में अनुपात के  चिन्ह सा खड़ा
पूंजिवादिता की भेंट
एक बटईया में मिली जमीन।

------------राहुल पाण्डेय शिरीष

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