Friday 19 July 2013

वो सपना नहीं देखता है .....




अब पता नहीं चलता
कि , मेरे
चारों तरफ लोग रहते हैं 
या
मुझे आदत हो चली है
भीड़ को अनुभव करने की.
जहां मेरा जिस्म ना जाने
कितनों से रोज रगड़ता है
कितनों के पसीनें मेरे
कपड़ों में बु छोड़ जाते हैं
और यह पता नहीं चलता
कि फिर
वो मिले या ना.
रात की लम्बी खामोशी 
और नंगी टांगे किसी देश
का नक्शा बयान करती हैं
जिसे जकड़ा हुआ साफ तौर पर
देखा जा सकता है.
चेहरे की हताशा, उस पल
सबसे ज्यादा प्रभावशाली  
होती है , जब मेरी आंखों के सामने
मेरे कानों में कनगोजर घुसते जाते हैं
और
अपाहिज से बन गएं हाथों से
मैं उन्हें रोक नहीं पाता हूं.
याद आती है वो रात
जब विआह के बाद
कोहबर में उसके साथ बैठा था
और किसी ने एक सोता हुआ
बच्चा मेरे गोद में रख दिया था.
वो बच्चा बड़ा हो गया है
और, शायद उसके साथ-साथ मेरा भी
जिसे लोग मेरा अंश मानते हैं
पर वह मेरे जैसा नहीं है.
हम जिन्दगी भर अमीर होने का सपना
देखते रहें , और
उसे पता ही नहीं चला अमीरी में कि
मैं क्या हूं !!
कैसे जिना है जिन्दगी मरना कैसे है 
उसके और मेरे जिस्म में फर्क बस उम्र का है
मैं आज भी सपने देखता हूं
और उसने कभी
सपना देखने का भी सपना नहीं देखा .
वो उस भीड़ से भी अलग है
जिसे मैं आज भी अनुभव करता हूं
उनसे रोज रगड़ता हूं
और वो नंगी टांगे अब सिथिल
पड़ चुकी हैं.
उसकी भी त्वचा मर चुकी है.
अनुभवहीन सा पड़ा उसका
जिस्म कभी नहीं जगेगा.
जैसे उस देश के नक्शे में बनी गलियां
खुद से लड़ती थीं, आज भी लड़ती हैं
और उन गलियों के बच्चे मेरे बच्चों के
हमउम्र हैं.
जो लड़तें हैं
भागते हैं
जीते हैं
पर
सपना नहीं देखते हैं !


--राहुल पाण्डेय शिरीष  

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