व्यथित मन ये तेरा मेरा
सताता ये घना अंधेरा ,,
काल-चक्र के रिसते लहू
से ,,,
कैसे कर दूँ प्रिये
श्रिंगर तेरा ?
वो अमिट शीला सी स्मृति
जिसकी छाई से बनी
अनुभूतियों की सृष्टि
इस ज्वलंत जग मे
कैसे दे दूँ प्रिये
सरोकार तेरा ?
इस नीरस जीवन सफर मे
उम्मीद टूटी हर डगर मे
अधिकार-वांछित ही रहा ,,
कैसे पा लू प्रिये
अधिकार तेरा ?
नाजुक से वो डोर टूटे
जैसे फूलों से ओस रूठे
इस जीवन के घोर द्वंद
कैसे पा लूँ प्रिये
प्यार तेरा ?
...........राहुल पाण्डेय "शिरीष "
No comments:
Post a Comment