पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ,
की धुंध पे नंगे पांव
भटकते रहें ।
तरंगो की तानों मे
उलझती जुल्फें उसकी
रात को और
काली ,,
नशीली ,,
रोमानी कर गयी ।
चाँदनी के धागे
ओस संग मिल
रात भर झरते रहे
नैनो से।
मौन रहे हम ,,
देह की ऊष्मा ,,
सुनाती रही,
आप बीती ....
पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ....
फ़लक के आँचल मे
जड़े नक्षत्र ,
किसी बारात सा सज रहे थे ,
और ,पेड़ की झुरमुठ
से झाँकता चाँद ......
बिस्तर की सिलवट ,,
देखता ,,
शरमाता ,,
बिना टोके चला जाता ।
रोम रोम पुलकित
कंपित स्वर ,
स्पर्श भेदती अंतरमन को
साँसे भी टकराते रहे
रात कुछ यों हुई
प्रीति ....
पहाड़ो पे रात
कुछ यों बीती ......
.........राहुल पाण्डेय "शिरीष"
bahut khub.
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