Thursday 22 March 2012

अंतरक्रंदन ..........

उसकी यादों से फूटता अंतरक्रंदन ।
मेरी मनोदशा बताती है ,
की किस तरह मेरी भावनाओं
का दमन हुआ है ।
जैसे की रात के अचानक
चले जाने पर
आकाश से तारे
छिन लिए जाते हो ।
अब यह भी बोध नहीं होता की
वो मुझमे आमीज है
या ,,,,,
पृथक कर गयी है मुझे
अपने हर एक छुवन से ।
वो क्षण जब मन अचल होता है
अंधकार मे दबे भाव
कुरेदते है
स्मृतियों को ।
अज्ञात सी अनुभूति होती है ,,
उस क्षण....
पेड़ की वो शाख जिसके सामने
हम बैठते थे .....
जो नदी की धारा से
छूता रहता था ,,,,,
हम कहते की ये
प्रेम कर रहे हैं ।
पर ॥
वो धारा तो उसे
गला रही थी ।
आज जब अकेले बैठा
वहाँ तो देखा
की वह हिस्सा
नहीं है अब पेड़
के पास ,,,,
जैसे की तुम
मेरे पास नहीं
हो .........


..............राहुल पाण्डेय "शिरीष"

1 comment:

  1. बहुत अच्छा चित्रण है भावों में तरलता है. व्यंजना है, शब्द विन्यास सुन्दर है. किन्तु पढ़कर नहीं लगता की यह कविता है. यह किसी उपन्यास या कहानी का एक अंश प्रतीत होता है

    ReplyDelete