पीछे मुड़ कर देखता हूँ
पीछे मुड़ कर देखता हूँ ,
तो पाता हूँ ,
मैले, बदरंग कपड़े की गठरी ,
में ;
रिश्तों की आस्तियां
बीच की खाई में ,
पत्तों से ढकी पड़ी है।
ये वही खाई है जिसे
हमने अपने प्यार की अनुभूतिओं,
से भरने का निशचय
किया था ।
और
और इसके ऊपर मानक पुलिया
बनाकर
एक दूसरे के अधरों ;
के समीप पहुँच कर
उन्मादों का नया संसार गठित
किया था।
आज नीचे तक जाता हूँ ,
उस खाई मे
पर देख नहीं पता हूँ ।
कसमों और वादों का वो
विभात्श रूप । विकृत रूप ।
जिसका तुमने कारोबार बनाया था ।
वो
भूर –भूरी मिट्टी की तरह ,
बिखरे पड़े हैं ।
जिसके भरोशे मैंने आकाश
का गठन किया था....
जहां से पहाड़ शुरू होता है ,
उसके नीचे धरती पर
रात की रानी का वो वृक्ष ।
जिसकी कलियों का मोहक गंध ,
शिशिर से भीगे तुम्हारे आँचल ,
मे व्याप्त आकार मुझे स्नेह देता ,संदेश देता।
आज पुरवाई मे वो स्पर्श नहीं ,
वो गंध नहीं ,
जिसका मैंने आंकलन किया था.....
राहुल पाण्डेय “शिरीष”
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